हमारे देश में जैसे अक्सर बोली और पानी बदलते हैं
वो इतनी जल्दी जल्दी आजकल बयानों को बदलते हैं .
ककहरा भी नहीं आया जिन्हें महंगाई का अब तक,
वो माहिर मुआशियत फिर भी बड़े तन तन के चलते हैं .
कि अब के साल बारिश खूब और महंगाई कम होगी ,
हुई मुद्दत उस तरकश से अब फ़क़त दो तीर चलते हैं .
बढ़ा कर हद से ज्यादा भाव फिर थोड़े से कम करना,
ये कातिल आजकल के बारहा रहम कुछ ऐसे करते हैं .
हुस्न वालों को पहले ही बहुत बख्शा है कुदरत ने ,
मगर फिर भी ना जाने क्यों वो बन ठन के चलते हैं .
ना जाने कौन अब प्रदीप बचाएगा ये मुल्क उनसे ,
जो चारा, कोयला, सब कुछ चबाये बिन निगलते हैं .
वो इतनी जल्दी जल्दी आजकल बयानों को बदलते हैं .
ककहरा भी नहीं आया जिन्हें महंगाई का अब तक,
वो माहिर मुआशियत फिर भी बड़े तन तन के चलते हैं .
कि अब के साल बारिश खूब और महंगाई कम होगी ,
हुई मुद्दत उस तरकश से अब फ़क़त दो तीर चलते हैं .
बढ़ा कर हद से ज्यादा भाव फिर थोड़े से कम करना,
ये कातिल आजकल के बारहा रहम कुछ ऐसे करते हैं .
हुस्न वालों को पहले ही बहुत बख्शा है कुदरत ने ,
मगर फिर भी ना जाने क्यों वो बन ठन के चलते हैं .
ना जाने कौन अब प्रदीप बचाएगा ये मुल्क उनसे ,
जो चारा, कोयला, सब कुछ चबाये बिन निगलते हैं .