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Tuesday, March 31, 2009

चुप की ज़बान

चुप की ज़बां कभी समझी तो होती ,
मेरे दिल की हालत समझी तो होती .
तेरा रूठ जाना भी वाजिब है लेकिन ,
ज़रा मेरी मुश्किल भी समझी तो होती .
दिखावा मोहब्बत में न आता है मुझको,
जो हालत थी दिल की समझी तो होती .
हजारों तमन्ना बसी मेरे दिल में ,
कोई खाहिश तुमने भी समझी तो होती .
बहुत सारे अरमां थे मेरे दिल में ,
तुमने किसी की कद्र की तो होती .
तुम्हारे लिए ही धड़कता है ये दिल ,
कभी धड़कने भी समझी तो होती .
मोहब्बत के सावन बरसते हैं सब पे ,
कोई बारिश मुझपे भी बरसी तो होती .
तमन्ना मचलकर बयां हो ही जाती ,
ज़रा सी हवा जो दी तुमने होती .
मुलाक़ात तुमसे और जी भर के बातें ,
कहाँ मेरी किस्मत हकीकत ये होती .
ये दिल चाहता है बहुत तुमसे कहना ,
ज़बां से कोई बात निकली तो होती .
मोहब्बत तो करता है प्रदीप तुमसे ,
तपिश उसकी तुमने भी समझी तो होती .

प्रेमिका के लिए

तुम्हें दिल से लगाना चाहता हूँ,
तुम्हें अपना बनाना चाहता हूँ .
अपनी बांहों में भरके तुम्हें .
सारे जग से छुपाना चाहता हूँ
जिस घड़ी तेरे पास न हो कोई ,
मैं तेरे पास आना चाहता हूँ .
आज तक जो नहीं सुन पाया कोई ,
वही नग्मा सुनाना चाहता हूँ .
तमन्ना बसी है जो इस दिल में ,
वो सब तुमको बताना चाहता हूँ.
बहुत सी बातें अनकही हैं ,
वो सब तुमको सुनाना चाहता हूँ .
हुई मुद्दत मुझे आंसू बहाते ,
तेरी कुर्बत में मुस्कुराना चाहता हूँ .
छुपा जो भी प्रदीप के दिल में ,
हाल-ऐ-दिल सब बताना चाहता हूँ .

Monday, March 16, 2009

बाप और बच्चे का वार्तालाप

आ ! बच्चे अब बाहर आ जा ,
देर न कर आ जल्दी आ जा .
ये है रंग रंगीली दुनिया , लगती है सपनीली दुनिया .
कैसे इसको छोड़ के आऊँ ? तेरी दुनिया से घबराऊँ .
बोलो फिर क्यों बाहर आऊँ ?
ये भी रंग - रंगीली दुनिया , ये भी तो है तेरी दुनिया .
हैं सब तुझको चाहने वाले, तेरे नाज़ उठाने वाले .
देखो सब हैं बांह पसारे , तुझे पुकारे सांझ सखा रे .
आ बच्चे अब बाहर आ जा .
देर न कर आ जल्दी आ जा .
बात तुम्हारी मुझे डराती , भेदभाव का भय दिखलाती .
कुछ ऐसा अहसास है मुझको , ढोंग बहुत है उस दुनिया में .
मुझको प्यारी अपनी दुनिया , पाक साफ़ छोटी सी दुनिया .
क्यों न मैं इस पर इतराऊँ , बोलो क्यों मैं बाहर आऊँ ?

माना भेदभाव है इसमें , जोड़ और बिखराव है इसमें .
दुःख के साथ-साथ हैं सुख भी , नए-नए अंदाज़ हैं इसमें .
कुछ खट्टी कुछ मीठी बातें , अंधियारी और उजली रातें .
आओ तुमको सभी दिखाऊँ , लेकिन पहले बाहर आओ .
देर करो मत ! जल्दी आओ ...........
ऐसे मुझको मत बहलाओ , मुझको अपनी दुनिया अच्छी .
छोटा सा संसार है मेरा , छोटा सा घर बार है मेरा .
रंग रूप का भेद नहीं है , यहाँ कोई लिंग भेद नहीं है .
मैं जब खुश हूँ अपने घर में , फिर बोलो क्यों बाहर आऊँ ?

छोडो अब वो रैन बसेरा , तुझे बुलाए नया सवेरा .
तेरी माता तड़प रही है , सुन तो ! कैसे बिलख रही है .
दर्द को उसके अब तो समझो, मेरे बच्चे कुछ तो समझो.
मत उसको तुम और सताओ , आओ जल्दी से आ जाओ .

माना कि वो तड़प रही है , और दर्द से बिलख रही है.
लेकिन मैं ये कैसे भूलूँ ? अपनी ऐश को कैसे भूलूँ ?
बिन मांगे सब मिलता मुझको, कुछ भी यहाँ न खलता मुझको .
इतनी अच्छी दुनिया तजकर ,
कैसे मैं उस जग में आऊँ ?

देर करो मत अब तुम ज्यादा ,
मैं करता हूँ इतना वादा .
यहाँ तुम्हें कोई कष्ट न होगा , यकीं करो कुछ कष्ट न होगा .
उस दुनिया जैसी ही तुमको , अपनी माँ की गोद मिलेगी .
भेद भाव न होगा तुमसे , अपने हक की ख़ुशी मिलेगी .
बस ! अब इसको मत तड़पाओ !
आओ जल्दी से आ जाओ !

लगता है कुछ बिछुड़ रहा है , अब ये डेरा उजड़ रहा है .
ख़त्म हुआ अब दाना पानी , अब याँ रहना है बेमानी .
मेरी माता तड़प रही है , दर्द से इतनी मचल रही है .
कैसे अब मैं आँखें मूंदूं ? जी करता है बाहर कूदूं .
तेरे वादे पर भी मुझको , हाँ हाँ इत्मीनान हुआ है .
अपना वादा भूल न जाना ,भेद भाव से दिल न दुखाना .
अच्छा माँ अब और न तड़पो !
तेरा पेट मैं छोड़ रही हूँ . ....
तेरी गोद की खातिर देखो , मैं इस घर को छोड़ रही हूँ .
x x x x x x x x x x
फिर मेरी कुछ तंद्रा टूटी , कोई मुझे झंझोड़ रहा था .
बाहर ठिठुरन थी कुछ ज्यादा , अन्दर से कुछ शोर हुआ था .
मेरी नातिन दौड़ी आई , एक ख़ुशी कि खबर सुनाई .
तुम्हें मुबारक ! लक्ष्मी आई , इक बच्ची तेरे घर आई .

गोद लिया तो देखा उसको ,
आँख खोल वो घूर रही थी .
जैसे मुझसे पूछ रही थी !
याद अभी तक है क्या वादा ?

बेशक ! बेशक ! याद है मुझको
और हमेशा याद रहेगा .
भेद भाव हरगिज़ न होगा .
भेद भाव हरगिज़ न होगा .

Sunday, March 15, 2009

बहाना

काम जब भी नया कीजिये ,
दिल से ज़िक्र ऐ खुदा कीजिये .
उलझी लट पे उठे गर सवाल ,
फिर कुछ बहाना बना दीजिये .
गर छिड़े ज़िक्र ऐ दर्द औ ग़म ,
फिर ज़िन्दगी की हवा कीजिये .
दिल से चाहे जो उसके लिए ,
आप पलकें बिछा दीजिये .
क्या फिक्र जो हुआ ये खराब ,
काम फिर से नया कीजिये .
जाने वाले को मत टोकिए ,
हंस के उसको विदा कीजिये .
बख्श दो जो बुरा वो करे ,
पर बुराई मिटा दीजिये .
क्या हुआ जो गिरे बार बार ,
उठिए फिर हौसला कीजिये .
क्या करेंगे अँधेरे प्रदीप ,
कोई दीपक जला दीजिये .

एक झलक

मैं ये सोचकर उसके दर तक गया था कि झलक अपनी कोई दिखा देगी मुझको.
मगर उसने देखा न चेहरा दिखाया , अँधेरा था घर में नज़र कुछ न आया .
बहुत देर बैठा था पलकें बिछाए , के नज़रों को उसके दर पे टिकाये .
मगर वो न आये न दीपक जलाए , तमन्ना को सीने में यूं ही दबाये .
दरस बिन तरसती वो अँखियाँ छुपाये , मैं टूटे से दिल से वहाँ से उठा था .
क़दम ऐसे अंदाज़ से उठ रहे थे , के ज्यों लाश वो अपनी ही ढो रहे थे .
लचकती थी पिंडली खुद अपने वज़न से , वो हालत न पूछो अजी तुम क़सम से .
क़दम ज्यों धंसे हों ज़मीं दलदली में , बहुत टीस चुभती थी ज़मीं मखमली में .
उसकी गली से निकल कर अजी मैं ,जाने ये किस मोड़ पर आ गया हूँ .
उठा हाथ सीने की जानिब तो जाना , कि दिल तो वहीं छोड़कर आ गया हूँ .

मुक्ति चाहता हूँ मैं

मुक्ति चाहता हूँ मैं
रिश्तों के जंजाल से , ज़िन्दगी के जाल से .
हाल के बेहाल से , बेबसी के जाल से .
दर्द से मलाल से मुक्ति चाहता हूँ मैं .....
सब तरफ फरेब है , फरेब ही फरेब है .
स्वार्थी मनुष्य है , स्वार्थ ही स्वार्थ है .
इस फरेब औ एब से , मनुष्य के स्वार्थ से .
मुक्ति चाहता हूँ मैं -------
जो तुम्हें दिया हुआ , उससे हूँ बंधा हुआ .
कौल वो अमोल है , घुटन भरा माहौल है .
सांस कुंद कुंद से, इस घुटन की जिंद से .
मुक्ति चाहता हूँ मैं ........
कसमसाहट है बहुत , छट पटाहट है बहुत .
आजकल इस मन में कस मसाहट है बहुत .
जिससे हूँ बंधा हुआ , उस वचन को फेर लो .
आज उस वचन से बस . मुक्ति चाहता हूँ मैं ........
सुलग रहा है तन मेरा , जल रहा बदन मेरा .
क्रोध की अगन में आज, उबल रहा बदन मेरा .
उस वचन से , इस अगन से , मुक्ति चाहता हूँ मैं ....
काम में लगे नहीं , घर में भी लगे नहीं .
आज इस जहान में , कुछ मुझे जांचे नहीं .
इस सुलगती आग से , अपने फूटे भाग से .
मुक्ति चाहता हूँ मैं .........
कल तलक सभी को जो , सिखा रहा था ज़िन्दगी .
आज उसी शख्स को , सिखा रही है ज़िन्दगी .
इस सीखने सिखाने से , और इस ज़माने से .
मुक्ति चाहता हूँ मैं .........
मुक्ति चाहता हूँ मैं ...............

घर

एक छत तले कितने सारे अजनबी रहते रहे ,
और हम नादान कितने उसको घर कहते रहे .
इक नदी बहती हुई लगने लगी ये ज़िन्दगी ,
कितने सारे रिश्ते इसमें बिन रुके बहते रहे .
चार दीवारें खड़ी कर एक छत भी डाल दी ,
बेखुदी में इस मकां को हम भी घर कहते रहे .
तंग आये इस बेकसी औ बेबसी से हम ,
लोग जाने क्यों इसे ज़िन्दगी कहते रहे .
अब ये जाना उसके मन में मैल था कितना भरा ,
लोग हंसकर मिलने को ही बंदगी कहते रहे .
अपना ग़म लेकर नहीं जाते कहीं ऐ प्रदीप
उम्र भर ये सोचकर चुपचाप ग़म सहते रहे .

Friday, March 13, 2009

फर्क

फर्क
कभी कभी वक़्त भी हमें कैसे कैसे सबक सिखाता है ? कहते हैं कि वक़्त सबसे बड़ा शिक्षक होता है . वही हमें चीजों में फर्क करना सिखाता है . कभी कभी इंसान सही गलत का फैसला नहीं कर पाटा. जब दो घटना घटती हैं तो उनकी तुलना करने पर ही हम जान पाते हैं कि सही क्या है और गलत क्या ? अक्सर हम हर मीठे बोल बोलने वाले को दोस्त समझ लेते हैं . सच तो ये है कि एक दो मुलाक़ात में दोस्त की पहचान करना बहुत मुश्किल होता है. इस बारे में मुझे एक घटना याद आ रही है . एक दिन की बात है . मुझे ऑफिस के लिए देर हो रही थी क्योंकि किसी काम के सिलसिले में देर तक घर रहना पडा . अचानक फोन बजा तो मैंने देखा वो मेरी प्यारी दोस्त का फोन था. राम राम करके उसने मुझे कहा . कहाँ जा रहे हो ?
ऑफिस , मैंने जवाब दिया .
आज मत जाओ . वह बोली.
क्यों ? मैंने चौंक कर पूछा . क्योंकि वह मुझे काम कम करने को कहती थी मगर ये कभी नहीं कहा कि काम बंद कर दो. मैं चौंका इसलिए कि वह काम पर जाने को ही मना कर रही थी . कहते हैं कि फर्स्ट इम्प्रेशन इज द लास्ट इम्प्रेशन, मगर एक इंसान को समझने के लिए एक मुलाक़ात कुछ भी नहीं . उसके लिए तो पूरा जन्म भी कम होता है. इंसान तो प्याज के छिलके की तरह होता है जितना उसको जानोगे , उसके साथ रहोगे ,उतना ही उसे समझते जाओगे. दोस्त किस तरह से आपको खुश रखना चाहता है ! इसका अंदाजा लगाने में हम अक्सर गलती कर देते हैं . मैं उसे मना नहीं कर सका मगर मन में सोच रहा था कि पता नहीं क्या बात है ?
मैं कुछ ऐसा नहीं मांग रही सडियल , जो इतना सोचने लगे - जवाब में देरी से वह शायद मेरी उलझन समझ गई थी .
नहीं यार ऐसी कोई बात नहीं - मैंने जवाब दिया.
तो ऐसा करो सीधे स्वागत रेस्तरां पहुँचो .उसने हुक्म सुनाया .
वो कहाँ है ? मैं बोला . मैंने नाम तो सुना था मगर एक्जेक्ट कहाँ है ये नहीं जानता था .
अरे ! कटवारिया के पास आओ किसी से भी पूछना बता देगा . उसने मुझे डांटते हुए कहा .
ठीक है कितने बजे आना है ? मैंने हार मानते हुए पूछा .
११ बजे . हम तीनों आ रहे हैं . उधर से जवाब आया .
ओके कह कर मैंने फोन काट दिया . लक्ष्मी मेरी बहुत अच्छी दोस्त है. अक्सर हम देर तक बात करते हैं . कोई विषय नहीं जिस पर हम चर्चा न करते हों . वह बेहद समझदार लेडी है . कहती है दसवीं तक पढ़ी हूँ मगर इतनी अच्छी दोस्त होते हुए भी उसकी इस बात पे मैं आज तक यकीन नहीं कर पाता . क्योंकि वह बात ही इतनी समझदारी भरी करती है . मानो दर्शन शास्त्र में महारत हासिल हो . उसके सामने मुझे अपनी एमए की दो दो डिग्री भी कम लगती. ज़िन्दगी के बारे में उसके तजुर्बे से मुझे अपनी उलझन सुलझाने में बहुत मदद मिलती. मगर उसकी इस बात से मुझे अपने एक दिन के काम के नुकसान की पड़ी थी . ११ बजे से पहले ही मैं स्वागत रेस्तरां पहुँच गया . स्वागत रेस्तरां देखने में तो किसी हट जैसा लगता है. मैंने अन्दर झाँककर देखा तो लक्ष्मी अभी नहीं आई थी . रेस्तरां पर कोई बोर्ड नहीं लगा था इसलिए तसल्ली के लिए मैंने सामने बैठे आदमी से पूछा -
स्वागत रेस्तरां यही है क्या ?
जी सर ! उसने विनम्रता से जवाब दिया .
मैं बाहर निकल आया और लक्ष्मी का इंतज़ार करने लगा. कुछ देर में वो तीनों आई और सीधी अन्दर रेस्तरां में चली गई . मैं अभी सोच ही रहा था कि वो बाहर निकली . मैं दरवाज़े पर ही खड़ा था. शायद उनको रेस्तरां पसंद नहीं आया था. कहीं और चलते हैं . ये बात कान में पड़ते ही मेरा दिल ख़ुशी से तेज तेज धड़कने लगा . मुझे यहाँ तक आने का अफ़सोस था तो कुछ खर्च न होने की ख़ुशी भी थी . जब तक कार मुड़कर नहीं आई मैं वहीं खड़ा रहा. कार गुजरी तो मैं निश्चिंत हुआ और चल दिया . मैंने सोचा कुछ देर ही हुई है ऑफिस चलता हूँ . अभी मैं बस स्टाप पर ही खड़ा था कि फ़ोन की घंटी बजी . उसी का फ़ोन था .
नहीं आया न सडियल ! उधर से आवाज आई .
मगर मैं तो वहीं था और मैंने तुमको देखा भी था , जब तुम रेस्तरां में आई . मैंने सफाई दी .
तो बताओ मैंने क्या पहना था ? उसने पूछा . उसे शायद अब भी यकीन नहीं हुआ था कि मैं आया हूँ.
मैंने साडी का रंग बताया तो वो कुछ संतुष्ट होते हुए बोली कि बावले वो मैं नहीं मेरी दोस्त थी .
पर मैं तो समझा कि तुम हो . मैंने जवाब दिया .
तो अब कहाँ जा रहा है ? लक्ष्मी ने पूछा .
ऑफिस जा रहा हूँ . मैं बोला .
नहीं ! लक्ष्मी ने अधिकार पूर्वक कहा .
तो ? मैंने पूछा .
सीधे अरबिंदो मार्केट आओ . लक्ष्मी ने हुकुम सुनाया .
मगर मैं जब तक आऊंगा तुम निकल जाओगे . मैंने न जाने का बहाना बनाया.
नहीं , मैं कुछ नहीं जानती फटाफट आओ . लक्ष्मी बोली.
ठीक है , आता हूँ . मैंने लगभग हार मानते हुए कहा .
मैंने बस पकड़ी तो देखा कि रास्ते में बहुत जाम था.
कुछ देर में उसने फिर फ़ोन किया . मेरे हेलो करने से पहले ही बोली . कहाँ है ?
एन सी इ आर टी . मैंने जवाब दिया . बहुत जाम लगा है यार .
मैं कुछ नहीं जानती , जल्दी ऑटो पकड़ के आ . लक्ष्मी ने हुकुम सुनाया .
मैं ऑटो पकड़ कर पहुंचा और जल्दी से रेस्तरां में प्रवेश किया. वो तीनों एक टेबल पर बैठी थी और आर्डर दे रही थी . बैरा मेरे पास आया तो मैंने भी आर्डर दिया और उनसे कुछ दूर बैठ गया .
उन्होंने हल्का फुल्का आर्डर दिया था सो जल्दी ही खाकर निकल ली . मैं आर्डर दे चुका था इसलिए पूरा खाना खाकर ही निकला. पूरे ४२५ रूपये खर्च हुए थे . खुद पे ही सही मेरे बहुत रूपये खर्च हो गए थे . मुझे याद नहीं मैंने कभी इतना महंगा खाना खुद खरीद कर खाया हो . मैं खाकर ही निकला था कि उसका फ़ोन आ गया . क्या हुआ ? उसने छूटते ही पूछा .
अभी खाकर निकला हूँ . मैंने जवाब दिया .
कैसा रहा ? लक्ष्मी ने पूछा .
खाना अच्छा था मगर बहुत महँगा . मैं बोला.
कंजूस कभी खुद पे भी खर्च किया कर . लक्ष्मी ने कहा .
तुम तो मेरी आदत जानती हो . मैंने कहा .
तो क्या हुआ खुद पे ही तो खर्च किये हैं . अफ़सोस क्यों कर रहे हो ? लक्ष्मी ने ताना मारा.
नहीं ऐसी बात नहीं . मैंने सफाई देने की कोशिश की.
जा अब घर जा ! लक्ष्मी ने यह कहकर फ़ोन काट दिया .
अब इतने पैसे कैसे कमाऊंगा ? यही सोचते हुए मैं घर की तरफ चल दिया . खाना अच्छा था लेकिन मुझे पैसे जयादा खर्च होने का अफ़सोस था . कुछ भी हो मैं इस सब के पीछे दोस्त की नेक भावना को नहीं समझ रहा था .
बात आई गई हो गई . कुछ दिन बाद मेरी एक लड़की से जान पहचान हो गई और वो अक्सर मुझसे मिलने के लिए कहती . मगर मेरे पास वक़्त ही नहीं था . एक दिन मैंने सोचा कि चलो मिल ही लेता हूँ . मैंने उसे फ़ोन किया . तो वो बोली कि पीवीआर पे आ जाओ .
ठीक है मैं वहाँ पहुँच कर फ़ोन करता हूँ . मैं बोला .
ओके ! रूबी बोली . जी हाँ उसका नाम रूबी है . किसी एड एजेन्सी में काम करती है . नेट पर हमारी जान पहचान हुई . उसके बारे में बहुत कम जानता हूँ . फिर भी वो फ़ौरन मिलने को तैयार हो गई . मुझे न जाने क्या खटका . मैंने पीवीआर जाकर भी उसे फ़ोन नहीं किया. कुछ दिन बाद उसका मेसेज आया .
तुमने कॉल नहीं की उस दिन . रूबी ने शिकायत के लहजे में पूछा था .
उस दिन अचानक बहुत काम आ गया था और जल्दी में कॉल भी नहीं कर सका .
एक लड़की से मिलने की कमजोरी मैं छुपा नहीं सका . कुछ दिन बाद उसे फिर कॉल किया .
हेलो रूबी !
ओह हाय ! रूबी बोली.मैं फ्री हूँ . आज मिलते हैं .
ठीक है . बोलो कहाँ आ रही हो . मैंने पूछा .
पीवीआर मिलते हैं . रूबी ने जवाब दिया .
ठीक है . मैंने हामी भरी .
मैं नीली जींस में हूँगी . उसने पहचान बताई .
कुछ देर इंतज़ार करते ही मेरा जी घबराने लगा और मैं वहाँ से कुछ दूर चला गया . १०-१५ मिनट उसका फ़ोन नहीं आया तो मैं बेफिक्र हो गया कि चलो बला टली . मगर वो ख़ुशी ज्यादा देर नहीं रही . उसका फ़ोन आया . कहाँ हो ? रूबी बोली .
मैं तो यहीं हूँ . मैंने जवाब दिया .
मैं नीली जींस में हूँ और पीवीआर के सामने खड़ी हूँ . रूबी बोली .
ठीक है मैं आ रहा हूँ. मैंने जवाब दिया .
जाते ही देखा तो वो वहीं थी . मुझे देखते ही उसने आगे बढ़कर हाथ मिलाया .
बेझिझक वो ऐसे बात करने लगी जैसे अपनी बहुत पुरानी जान पहचान हो .
क्या लोगी ? मैंने औपचारिकता में पूछा .
बरिस्ता में चलते हैं . रूबी बोली.
ओके . मैंने हाँ में सर हिलाया .
उसे देखते ही बैरा बोला -
हेलो मेमसाब.
रूबी उसको हेलो कहकर आगे बढ़ गई .
हम दोनों एक कोने में जाकर बैठ गए .
कुछ देर में बैरा आया . और मीनू कार्ड रख कर चला गया .
वेज या नॉन वेज ? रूबी ने मुझसे पूछा .
वेज . मैंने जवाब दिया .
हाँ . मैं भी नहीं खाती शाम को . रूबी बोली . मैं तो सलाद लूंगी .
मेरे लिए बर्गर . मैं बोला .
बैरा आया तो रूबी ने आर्डर दिया .
हम खाना खाते रहे और बात करते रहे . क्या क्या बातें की मुझे नहीं मालूम .
ये खाना खाते खाते मुझे अरविंदो मार्केट वाले खाने की याद आ गई . मैं उस दिन के साथ आज की तुलना कर रहा था और खाना ठूस रहा था . खाना खाकर वह बोली - चलें ?
हाँ . मैंने जवाब दिया .
मैंने पेमेंट किया और ६८५ रूपये के बिल को पॉकेट में रख लिया .
वह हाथ मिलाकर फिर मिलने का वादा करके चल दी .
मैं भी घर की तरफ चल दिया . रास्ते में भी मैं उस दिन के खाने से आज की तुलना कर रहा था .
उस दिन जो बात मैं नहीं समझ सका था . आज मुझे अच्छी तरह समझ में आ गई थी कि उस दिन के खाने और आज के खाने में क्या फर्क था ? एक दोस्त ने मुझे खुद पे खर्च करने के लिए बुलाया था तो भी मैं उसकी नेकनीयती को इतने दिन बाद समझ सका .दोस्त क्या होता है ? वह अपने दोस्त को कैसे खुश करता है यह बात मैं अच्छी तरह समझ गया था. एक वो थी जिसने सिर्फ मेरी ख़ुशी के लिए मुझे खाने पे बुलाया था और अपना बिल देकर चलती बनी और एक ये थी कि मेरे खर्च पे खाया और चलती बनी . उस दिन लक्ष्मी ने मुझे किस भावना से बुलाया था , मैं अच्छी तरह समझ गया था . ज़िन्दगी की भाग दौड़ में दोस्त को कैसे एक ख़ुशी का अहसास कराया जाता है वो अच्छी तरह जानती है . एक ये थी जो अपनी ख़ुशी के लिए जीती है और एक वो है जो दूसरे की ख़ुशी के लिए जीती है . अच्छा दोस्त क्या होता है , आज मैं अच्छी तरह समझ गया था .