मुझे गुल मिले या खार, नहीं छूटता कोई,
आदत का हूँ गुलाम खुद दोषी नहीं कोई.
रहते थे तुम जो सामने रोता नहीं था दिल ,
बस इतनी ख़ुशी भी आपसे देखी नहीं गई .
फुरक़त के शब्-ओ-रोज बिताने के लिए ,
चिट्ठी लिखी बहुत मगर भेजी नहीं गई .
कल मिले और आज जुदा हो रहे हैं हम ,
दो चार पल की ख़ुशी भी सहेजी नहीं गई .
महंगाई जीरो पर है ये सरकार कह रही ,
कीमत किसी भी चीज़ की नीचे नहीं गई .
जो कुछ मिला, है मुझे जान से अजीज़ ,
मुझसे कोई भी चीज़ कभी छोड़ी नहीं गई.
यूं तो मुझे मिले बहुत लेकिन क्या करुँ ,
बन जाए मेरा दोस्त वो आया नहीं कोई.
जो भी मिला उसी में प्रदीप रहा मस्त ,
औरों की ख़ुशी से उसे चिढ़ नहीं रही .
4 comments:
प्रदीपजी मित्र अचानक मिलते हैं इंतज़ार करें अच्छी व सटीक रचना ,आपको मित्र मिले इस कामना के साथ
dhanyawaad karuna ji . tippani aur kaamna dono ke liye . main aapke blog per tippani nahi kar pa rahaa hoon . word verification baar baar maangaa jaataa hai , isliye yaheen jawab de rahaa hoon
रचना बहुत अच्छी लगी....बहुत बहुत बधाई...
Sundar rachna hai yebhi!
http://lalitlekh.blogspot.com
Haan, zindagee dard samete hai..lekin, asalee jeevan me mai, hamesha badee hansmukh rahee...aur mera khayal hai, jo zindagee kee kshan bhangurta ko samajhte hain,
wahee log, rozmarra ke jeevan me hans pate hain! Warna to log aksar mooh fulayen rehte hain..."abke gar mujhe aisa kahega to mai, eent kaa jawab pattharse doonga...ye manovruttee hotee hai..usne to dedee galee,aur bhoolbhee gayaa..ab aap rakhiyte 7 janam yaad..uska to aapne fayda kar diya..!
Khair, mere chulbule panke qisse mere angrezi vibhag me darj hain!
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