घुप्प अंधेरा भगाने को क्या चाहिए ,
एक जलता हुआ बस दिया चाहिए .
जो न टूटे कभी भी किसी हाल में ,
अब तो ऐसा कोई सिलसिला चाहिए .
कितनी खामोशियाँ देखो पसरी यहाँ,
इस जहां में कोई जलजला चाहिए .
हो गई है जमा अपने रिश्तों में बर्फ,
हमको फिर आग़ाज ऐ मुरासला चाहिए.
हो रही है थकन फिर भी कट जाएगा,
इस सफ़र को तो अब मरहला चाहिए.
खाली बातों से कब बदले हैं निज़ाम ,
बेशक उसके लिए मुक़ातला चाहिए .
खाली रहने से तो अब न होगी गुज़र,
ज़िन्दगी के लिए कोई मशग़ला चाहिए.
कैसा ये और बोलो है किसका निज़ाम,
जिसको हर हाल में मदख़ला चाहिए .
आदमी की वहां क्या होगी बिसात ,
ख़ुदा से भी जहां मोजिज़ा चाहिए.
आपको चाहा तो क्यूं हुए हो ख़फ़ा ,
फांसी के वास्ते तो मज़लमा चाहिए .
जिनको तन्हाइयों ने सताया बहुत ,
प्रदीप उनको कोई हमइना चाहिए .
5 comments:
लेखन का सिलसिला चलता रहे...बेह्तरीन कविता, बधाई...
aapaki kavita behtrin hai,aage v padhna chahoonga....
pradeep ji gazab ki kavita likhi hai aapne. muje nahi pata tha ki aap me etna bada kavi chhipa baitha hai. Me to sochta tha ki aap to bus kam karne ki badi mashin ho.
aap ka jitu
सभी बहुत ही सुंदर रचनाये है ..बधाई
बड़े दिनों बाद दिखायी दिए आप ब्लॉग पे...
इक दिए की तलाश रही उम्र भर इस शमा को..या तो उजाले इतने तेज़ थे,कि,दिए दिखायी ना दिए, या मंज़िले जानिब अंधेरे लिखे थे...
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