खुशियों की बारिश हो घर में
तुम्हे मिले हर जीत,
रोशन हो घर बार तुम्हारा
जले दीप से दीप,
धन वैभव हों साथ तुम्हारे
दुआ करे प्रदीप .
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Monday, November 08, 2010
Tuesday, October 19, 2010
दरख़्त- नई ग़ज़ल
इतना करम रहा है मेरी जान ए सख्त का,
चर्चा रहा सदा इसी बरबाद-ए- वक्त का।
फूटी हैं कैसी-कैसी मुलायम सी कोंपलें
जज्बा तो देखिए जरा बूढ़े दरख़्त का ।
यूं तो किए हैं काम बहुत मैंने उम्र भर,
ख़ाना सदा खराब रहा मेरे बख्त का ।
अब तक किसी से भी मेरी ज्यादा न निभ सकी,
शायद मेरा मिजाज ही कुछ ज्यादा सख्त था।
मतलब निकल सके जहां मीठी ज़बान से,
क्या काम है वहां अलफाज़-ए-सख्त का।
आए हैं खाली हाथ तो जाना भी खाली हाथ,
मसरफ ही क्या है ऐसे में असबाब ओ रख़्त का।
जिसकी भरी हो झोली तजरुबाते ज़ीस्त से,
मोहताज क्यों रहे वो भला ताज-ओ-तख़्त का।
तारीफ़ बामुराद की अब क्या करे प्रदीप ,
देखा है जिसने खूं जिगर-ए-लख्त लख्त का।
चर्चा रहा सदा इसी बरबाद-ए- वक्त का।
फूटी हैं कैसी-कैसी मुलायम सी कोंपलें
जज्बा तो देखिए जरा बूढ़े दरख़्त का ।
यूं तो किए हैं काम बहुत मैंने उम्र भर,
ख़ाना सदा खराब रहा मेरे बख्त का ।
अब तक किसी से भी मेरी ज्यादा न निभ सकी,
शायद मेरा मिजाज ही कुछ ज्यादा सख्त था।
मतलब निकल सके जहां मीठी ज़बान से,
क्या काम है वहां अलफाज़-ए-सख्त का।
आए हैं खाली हाथ तो जाना भी खाली हाथ,
मसरफ ही क्या है ऐसे में असबाब ओ रख़्त का।
जिसकी भरी हो झोली तजरुबाते ज़ीस्त से,
मोहताज क्यों रहे वो भला ताज-ओ-तख़्त का।
तारीफ़ बामुराद की अब क्या करे प्रदीप ,
देखा है जिसने खूं जिगर-ए-लख्त लख्त का।
Sunday, March 21, 2010
आइना
आइना हूं झूठ कहां भाता है मुझे,
जो दिखाओ वही नज़र आता है मुझे,
मेरी फितरत कौन बदल पाया है भला,
लाख तोड़ो सच ही नज़र आता है मुझे,
किसी को भी हाल-ए-दिल नहीं कहता ,
हर शख्स हंसता नज़र आता है मुझे,
सबसे हंस हंस के जितना मिलता है,
वो उतना ही दुखी नज़र आता है मुझे,
सच वालों के रूबरू होकर प्रदीप,
अपना क़द अदना नज़र आता है मुझे ।
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