इतना करम रहा है मेरी जान ए सख्त का,
चर्चा रहा सदा इसी बरबाद-ए- वक्त का।
फूटी हैं कैसी-कैसी मुलायम सी कोंपलें
जज्बा तो देखिए जरा बूढ़े दरख़्त का ।
यूं तो किए हैं काम बहुत मैंने उम्र भर,
ख़ाना सदा खराब रहा मेरे बख्त का ।
अब तक किसी से भी मेरी ज्यादा न निभ सकी,
शायद मेरा मिजाज ही कुछ ज्यादा सख्त था।
मतलब निकल सके जहां मीठी ज़बान से,
क्या काम है वहां अलफाज़-ए-सख्त का।
आए हैं खाली हाथ तो जाना भी खाली हाथ,
मसरफ ही क्या है ऐसे में असबाब ओ रख़्त का।
जिसकी भरी हो झोली तजरुबाते ज़ीस्त से,
मोहताज क्यों रहे वो भला ताज-ओ-तख़्त का।
तारीफ़ बामुराद की अब क्या करे प्रदीप ,
देखा है जिसने खूं जिगर-ए-लख्त लख्त का।