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Sunday, August 17, 2008

ग़ज़ल

ठोकरें खाता है यां इंसान रोज़,
यूं दुखी रहता है यां इंसान रोज़ ।
आ गया तो खूब कर लो आ भगत ,
अब कहाँ आता है घर मेहमान रोज़ ।
मुद्दत हुई सीधी नहीं की बातचीत ,
पर खयालों में बहस होती है रोज़ ।
देखी हैं मैंने हसीनाएँ बहुत पर ,
आपमें कुछ और ही देखा है शोज़ ।
उड़ते फिरना आज़ाद पंछी की तरह ,
छोडो भी अब कहाँ है ऐसी मौज ।
हम भी सजधज कर चले बहना के घर ,
बाद मुद्दत के है आई भईया दौज ।
माँ की ममता अब हुई है खाब इक ,
जाने किस नफरत में जीते हैं अब रोज़ ।
मौत भी तो हो गई है खाब अब ,
ज़िन्दगी का ढ़ो रहा हूँ कब से बोझ ।
अपने दिल की कुछ नहीं कहता है वो ,
इक शिकन माथे पे बढ़ जाती है रोज़ ।
जाने ये कैसे गृहस्थी है प्रदीप ,
नित नई सी नोंक झौक रोज़ रोज़ ।

2 comments:

Anwar Qureshi said...

बहुत प्यारी ग़ज़ल है , अच्छा लिखा है आप ने शुक्रिया ..

Anonymous said...

sabse pehle to aapki tippani ke liye shukriya.
ab baat kartaa hoon aapki profile ki - to janaab padha keejiye ye achchha shawk hai ( aap ise muft ki salaag maankar kinaare bhi kar sakte hain) kyonki padhne ki aadat tanhaaie se bhi achhi saathi hoti hai , wajah saaf hai , kisi ne kahaa hai ki khaali dimaag shaitaan ka ghar hotaa hai , isliye padhoge to buri baatoon ke liye jagah hi nahi rahegi . ha ha ha .
chalo band kartaa hoon warnaa samjhoge ki main bore kar rahaa hoon .