याद की कुछ वजह तो होती है,
हाय ये भी बेसबब नहीं आती ;
वो मेरे पास है साए की तरह ,
मगर उससे लिपट नहीं पाती ;
वो भले मुझसे दूर हो लेकिन ,
याद उसकी कहीं नहीं जाती ;
सितम उसके कम नहीं मुझपे,
पर वफ़ा भी भुला नहीं पाती ;
जो गुज़ारे हैं साथ दोनों ने ,
मैं वो पल भुला नहीं पाती;
फिर कभी कहीं मिलें शायद,
खुद को यूं मिटा नहीं पाती;
प्रदीप तुझको कैसे समझाऊं,
मैं ये खुद समझ नहीं पाती;
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Tuesday, August 18, 2009
दो घड़ी
हम करें क्यों किसी की निन्दा,
कौन जाने हों दो घड़ी जिन्दा ;
तुमने मुझपे किए करम इतने,
एक पत्थर को कर दिया जिंदा;
जान होते हुए भी था मुर्दा ,
तुम मिले तो हो गया जिंदा;
ढल गई शाम हो लें रूखसत,
हम सुबह को मिलेंगे आइंदा;
मुझको खुश करोगी फिर हंसके,
देर तक कब रहा हूं आज़ुर्दा ;
पिंजरे से एक दिन उड़ जाएगा,
क़ैद कब तक रहेगा परिन्दा ;
सारी दुनिया को लूटकर देखो,
नेताजी कह रहा है दो चन्दा ;
महंगाई ज़ीरो तले भी जा पहुंची,
हमको ना कुछ दिखा कहीं मन्दा;
जो मिला पहले जी लें जी भरके,
बाद सोचेंगे क्या रहा पसमान्दा;
तुम मेरी जान मेरी मंजिल हो,
प्रदीप क्यूं भला हो शर्मिंदा ;
कौन जाने हों दो घड़ी जिन्दा ;
तुमने मुझपे किए करम इतने,
एक पत्थर को कर दिया जिंदा;
जान होते हुए भी था मुर्दा ,
तुम मिले तो हो गया जिंदा;
ढल गई शाम हो लें रूखसत,
हम सुबह को मिलेंगे आइंदा;
मुझको खुश करोगी फिर हंसके,
देर तक कब रहा हूं आज़ुर्दा ;
पिंजरे से एक दिन उड़ जाएगा,
क़ैद कब तक रहेगा परिन्दा ;
सारी दुनिया को लूटकर देखो,
नेताजी कह रहा है दो चन्दा ;
महंगाई ज़ीरो तले भी जा पहुंची,
हमको ना कुछ दिखा कहीं मन्दा;
जो मिला पहले जी लें जी भरके,
बाद सोचेंगे क्या रहा पसमान्दा;
तुम मेरी जान मेरी मंजिल हो,
प्रदीप क्यूं भला हो शर्मिंदा ;
Monday, August 10, 2009
नाम
है बात अलग ये कोई क्या क्या कमाता है,
कोई दाम कमाता और कोई नाम कमाता है ;
आराम किसे नसीब है इस दुनिया में यारों,
कोई हंसके बिताता, कोई रोके बिताता है ;
हैं दर्द बहुत यूं तो हर सीने में लेकिन ,
कोई खुद से छिपाता, कोई सबको बताता है ;
उस शख्स का तो यारों अंदाज जुदा है कुछ,
वो दिल की तपिश को भी आंसू से बुझाता है;
कोई काम नहीं उसको ये सच है मगर लेकिन,
वो सुबह का निकला, घर रात को आता है;
जीने की तमन्ना में हम रोज ही मरते हैं,
कहीं सौदा इज्ज्त का, कोई आन गवांता है;
बदलेंगी नहीं रोकर ये हाथों की रेखाएं ,
अनमोल घड़ी तू फिर क्यों यूं ही गवांता है.
ले दे के फ़क़त मैंने बस इतना कमाया है,
प्रदीप अंधेरों को खुद जल के भगाता है ;
कोई दाम कमाता और कोई नाम कमाता है ;
आराम किसे नसीब है इस दुनिया में यारों,
कोई हंसके बिताता, कोई रोके बिताता है ;
हैं दर्द बहुत यूं तो हर सीने में लेकिन ,
कोई खुद से छिपाता, कोई सबको बताता है ;
उस शख्स का तो यारों अंदाज जुदा है कुछ,
वो दिल की तपिश को भी आंसू से बुझाता है;
कोई काम नहीं उसको ये सच है मगर लेकिन,
वो सुबह का निकला, घर रात को आता है;
जीने की तमन्ना में हम रोज ही मरते हैं,
कहीं सौदा इज्ज्त का, कोई आन गवांता है;
बदलेंगी नहीं रोकर ये हाथों की रेखाएं ,
अनमोल घड़ी तू फिर क्यों यूं ही गवांता है.
ले दे के फ़क़त मैंने बस इतना कमाया है,
प्रदीप अंधेरों को खुद जल के भगाता है ;
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