हम करें क्यों किसी की निन्दा,
कौन जाने हों दो घड़ी जिन्दा ;
तुमने मुझपे किए करम इतने,
एक पत्थर को कर दिया जिंदा;
जान होते हुए भी था मुर्दा ,
तुम मिले तो हो गया जिंदा;
ढल गई शाम हो लें रूखसत,
हम सुबह को मिलेंगे आइंदा;
मुझको खुश करोगी फिर हंसके,
देर तक कब रहा हूं आज़ुर्दा ;
पिंजरे से एक दिन उड़ जाएगा,
क़ैद कब तक रहेगा परिन्दा ;
सारी दुनिया को लूटकर देखो,
नेताजी कह रहा है दो चन्दा ;
महंगाई ज़ीरो तले भी जा पहुंची,
हमको ना कुछ दिखा कहीं मन्दा;
जो मिला पहले जी लें जी भरके,
बाद सोचेंगे क्या रहा पसमान्दा;
तुम मेरी जान मेरी मंजिल हो,
प्रदीप क्यूं भला हो शर्मिंदा ;
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