बिन तुम्हारे क्या चलेगा आजकल,
थम गई है ज़िन्दगी भी आजकल.
आँखों से दरिया बहा करते हैं पर,
सांस मेरी थम गई है आजकल.
मिलने जुलने में भी होता मोलभाव,
ये तिज़ारत हो गई है आजकल .
बस्तियां सब बन गई हैं मंडियां ,
हर तरफ है कारोबार आजकल .
जी में आता है ये दुनिया छोड़ दूं ,
पर मौत भी महँगी हुई है आजकल.
बिन तुम्हारे सूना सूना है जहां,
भीड़ भी तन्हाई लगती आजकल.
जाते जाते जान भी तुम ले गए,
ज़िन्दगी बेजान है ये आजकल.
उम्र भर रौशन रहेगा ये प्रदीप,
हों भले कितने अँधेरे आजकल.
3 comments:
"पर साँस मेरी थम गयी है आजकल..."पढ़के लगा जैसे मेरे मूहसे किसीने अल्फाज़ छीन लिए हों!
आपकी सच्चे मनसे, दी गयी, विलक्षण सुलझी हुई टिप्पणीके लिए और हौसला अफजाई के लिए तहे दिलसे शुक्र गुजार हूँ..
और शतप्रतिशत सच है...अधूरी ख्वाहिश ही टीस बन जाती hai...
पहली टिप्पणी पूरी नहीं कर पायी..
एक और बात बाँट लेना चाहूँगी...जबतक इंसान दर्द से नहीं गुज़रता, सही अभिव्यक्ती करही सकता...जैसे की, किसीसे "कॉपी" करके कुछ कलाकृती बनाना या, खुदसे, अपने अनुभव से जो सीखा, उसीको व्यक्त करना..
एक और सच...यही अभिव्यक्ति हमें, अपने मनके बेहद संकुचित दायरेसे निकल , एक विश्व व्यापी पारधी से जोड़ सकती है...एक दिलसे, सीधे दूसरे दिलतक, निशब्द राह पोहोंच जाती है..
शब्दों का इस्तेमाल तो इसलिए करना होता है,की, हम दूसरे व्यक्ती को "देख"नहीं सकते..वरना भाषा तो अभिव्यक्ती का सबसे कमज़ोर माध्यम है...मेरा तो शब्कोष भी बेहद संकीर्ण है..न मई कवी हूँ ना लेखक..
गर आप मेरे कलके ब्लोग्स पे जाएँ, तभी मई बता सकूंगी,की मेरी रोज़ी रोटी का ज़र्या या फिर आनंद क्या है..
जिसकी:
"फाइबर आर्ट","चिन्दिचिंदी","गृहसज्जा","बागवानी","परिधान","लिज्ज़त""धरोअहर"तो हमारे नष्ट होते बुनकरों और कारीगरों को समर्पित है..
मैंने मूवी making का एक कोर्स किया है..चाह रही हूँ,की,"आतंक" और "qaanoon" ko उजागर करती सशक्त फिल्म बनाऊं...फिर वही बात ..एक अधूरी ख्वाहिश..लेकिन चाहती हूँ, दुआ करती हूँ,की ये सपना सचमे तब्दील हो..के अब मेरा जीवन अपने देशको अर्पित है..
"karhee nahee saktaa" aisaa padhen,warnaa arth kaa anarth ho jayegaa...!
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