.....
मैं खुश हूँ आज भी
.......
खुश तो हूँ मैं आज भी
यकीनन !
क्योंकि दुखी होता तो
वक्त ठहर गया होता ,
लेकिन इसे तो जैसे
पंख लगे हैं, आज भी
ये सरपट दौड़ रहा है . .
कब दिन निकलता है ,
कब रात होती है ,
पता ही नहीं चलता !
ठीक वैसे ही जैसे -
स्कूल से आते ही
बस्ता पटक कर निकल जाना
और कंचे व काई -डंडा
खेलते -खेलते
कब सांझ हो गई !
पता ही नहीं चलता था ।
ठीक वैसे ही जैसे -
शाम को घर आते ही,
छुपम -छुपाई तो कभी,
पकड़म-पकड़ा खेलते- खेलते
कब रात हो गई !
पता ही नहीं चलता था ।
ठीक वैसे ही जैसे -
इंटर कॉलेज से लौटते समय
जमौए खाते - खाते
या आम खाते- खाते
कब दोपहर ढल गई !
पता ही नहीं चलता था ।
ठीक वैसे ही जैसे -
काॅलेज जाने के लिए
बस में बैठे दूर से ही ,
उसे निहारते -निहारते
कब स्टाॅप आ गया !
पता ही नहीं चलता था ।
ठीक वैसे ही जैसे -
फिजिक्स की नीरस क्लास में
देखते रहते थे एक कोने में
कि इक बार तो देखेगी !
इस आस में,
पीरियड कैसे बीत जाता था !
पता ही नहीं चलता था ।
ठीक वैसे ही जैसे -
गांव की गली में खड़े - खड़े
उसकी सिर्फ एक झलक
देखने के लिए,
पहर कैसे बीत जाती थी !
पता ही नहीं चलता था ।
ठीक वैसे ही जैसे -
खेत में काम करते हुए
पड़ोस में गेहूं काटती लड़की
को देखते - देखते और
काम करते - करते
कब सुबह से दोपहर
और दोपहर से सांझ हो गई !
पता ही नहीं चलता था ।
ठीक वैसे ही जैसे -
कभी ट्रेन के सफर में साथ
होती थी सुंदर सी सवारी
और स्टेशन कब आ गया !
पता ही नहीं चलता था ।
आज ऐसा कुछ भी नहीं है,
मगर वक्त दौड़ रहा है. .
न किसी को देखने की आस
न खेलना, न उछल कूद,
न बस, न ट्रेन, न स्कूल,
न काॅलेज और न गली का चौराहा।
तो फिर वक्त क्यों दौड़ रहा है ?
खूब सारा काम और
ढेर सारी किताबें ,
टेलीविजन की मारधाड़ से दूर,
कुदरत की गोद में ..
यह अलग ही दुनिया है ,
जहां काम के साथ-साथ
दोस्तों से चैटिंग करते -करते
थक जाओ तो घूम आओ ,
किताब पढ़ो , लिखो या
सो जाओ, गहरी नींद में...
सुबह से दोपहर ,
दोपहर से सांझ और
सांझ से रात , फिर रात से सुबह
कैसे होती है, पता ही नहीं चलता !
इसीलिए मैं आज भी खुश हूँ ।
....
प्रदीप कुमार
मैं खुश हूँ आज भी
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खुश तो हूँ मैं आज भी
यकीनन !
क्योंकि दुखी होता तो
वक्त ठहर गया होता ,
लेकिन इसे तो जैसे
पंख लगे हैं, आज भी
ये सरपट दौड़ रहा है . .
कब दिन निकलता है ,
कब रात होती है ,
पता ही नहीं चलता !
ठीक वैसे ही जैसे -
स्कूल से आते ही
बस्ता पटक कर निकल जाना
और कंचे व काई -डंडा
खेलते -खेलते
कब सांझ हो गई !
पता ही नहीं चलता था ।
ठीक वैसे ही जैसे -
शाम को घर आते ही,
छुपम -छुपाई तो कभी,
पकड़म-पकड़ा खेलते- खेलते
कब रात हो गई !
पता ही नहीं चलता था ।
ठीक वैसे ही जैसे -
इंटर कॉलेज से लौटते समय
जमौए खाते - खाते
या आम खाते- खाते
कब दोपहर ढल गई !
पता ही नहीं चलता था ।
ठीक वैसे ही जैसे -
काॅलेज जाने के लिए
बस में बैठे दूर से ही ,
उसे निहारते -निहारते
कब स्टाॅप आ गया !
पता ही नहीं चलता था ।
ठीक वैसे ही जैसे -
फिजिक्स की नीरस क्लास में
देखते रहते थे एक कोने में
कि इक बार तो देखेगी !
इस आस में,
पीरियड कैसे बीत जाता था !
पता ही नहीं चलता था ।
ठीक वैसे ही जैसे -
गांव की गली में खड़े - खड़े
उसकी सिर्फ एक झलक
देखने के लिए,
पहर कैसे बीत जाती थी !
पता ही नहीं चलता था ।
ठीक वैसे ही जैसे -
खेत में काम करते हुए
पड़ोस में गेहूं काटती लड़की
को देखते - देखते और
काम करते - करते
कब सुबह से दोपहर
और दोपहर से सांझ हो गई !
पता ही नहीं चलता था ।
ठीक वैसे ही जैसे -
कभी ट्रेन के सफर में साथ
होती थी सुंदर सी सवारी
और स्टेशन कब आ गया !
पता ही नहीं चलता था ।
आज ऐसा कुछ भी नहीं है,
मगर वक्त दौड़ रहा है. .
न किसी को देखने की आस
न खेलना, न उछल कूद,
न बस, न ट्रेन, न स्कूल,
न काॅलेज और न गली का चौराहा।
तो फिर वक्त क्यों दौड़ रहा है ?
खूब सारा काम और
ढेर सारी किताबें ,
टेलीविजन की मारधाड़ से दूर,
कुदरत की गोद में ..
यह अलग ही दुनिया है ,
जहां काम के साथ-साथ
दोस्तों से चैटिंग करते -करते
थक जाओ तो घूम आओ ,
किताब पढ़ो , लिखो या
सो जाओ, गहरी नींद में...
सुबह से दोपहर ,
दोपहर से सांझ और
सांझ से रात , फिर रात से सुबह
कैसे होती है, पता ही नहीं चलता !
इसीलिए मैं आज भी खुश हूँ ।
....
प्रदीप कुमार
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