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Sunday, July 20, 2008

ग़ज़ल

इस तरह उलझा हुआ हूँ दुनियादारी में ,
अपनी सुध-बुध खो चूका हूँ दुनियादारी में ।
जाने उसकी किस अदा से मैं हुआ घायल ,
कितने सारे पेंच-औ-ख़म हैं तेग-ऐ-दुधारी में ।
भ्रूण हत्या का हुआ है देखो ये अंजाम ,
बस आदमी ही रह गए मर्दुमशुमारी में ।
आँख उठाते ही सभी शर्म-औ-हया जाती रही ,
अब छुपाने को रहा क्या पर्दा दारी में ।
कौन कहता है न खाए हमने ज़ख्म ,
धुल गए हैं यार की सब गमगुसारी में ।
खू के रिश्तों से तो दिल के रिश्ते हैं भले ,
ठोकरें ही खाई हमने रिश्तेदारी में ।
गर्त से मुझको उबारा मेहरबानी आपकी ,
वरना में भी जलता रहता बेकरारी में ।
साफगोई इस जहां से उठ गई ऐ प्रदीप ,
झूठ , मक्कारी बची बस दुनियादारी में .

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बेहतरीन गजल है।

खू के रिश्तों से तो दिल के रिश्ते हैं भले ,
ठोकरें ही खाई हमने रिश्तेदारी में ।