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Sunday, July 20, 2008

अफ़सोस

अफ़सोस मैं फिर भी ज़िंदा हूँ !
इंसान नहीं मैं गुस्ताखियों का पुलिंदा हूँ ,
रोज नई नई गलतियाँ करता हूँ ,
अपने बुरे कामों का बोझ किसी पे
लादकर और बेशर्मी की चादर ओढ़कर ,
थोडी सी गर्दन झुका कर
बेगैरत होकर माफ़ी मांग लेता हूँ -जी मैं अपनी गलती पे शर्मिंदा हूँ ,
इंसान नहीं मैं गुस्ताखियों का पुलिंदा हूँ !
अफ़सोस मैं फिर भी ज़िंदा हूँ !
रात गई तो बात गई ,
फिर दिन निकला वही बात हुई ,
फिर वही झूठ फिर वही झमेला ।
कभी किसी का छीन अपने में डाला ,
कभी अपना भरने को उसे खंगाला .।
छीना झपटी लूट खसूट ,
मुझको भाता झूठ ही झूठ ।
सफल रहा तो किस्मत अपनी ,
वरना फिर बोलूँगा झूठ ।
जी बहुत मजबूर हूँ ,
अपनों से बहुत दूर हूँ
कोई मुझे काम नहीं देता
इसलिए पेट भरने के लिए बुरे काम करता हूँ ।
इस बार माफ़ कर दो आइन्दा ऐसा नहीं करूंगा ।
सच कहता हूँ मैं बहुत शर्मिंदा हूँ ।
इंसान नहीं मैं गुस्ताखियों का पुलिंदा हूँ !
अफ़सोस मैं फिर भी ज़िंदा हूँ !
जो मुझे समझाते हैं उनका क्या ?
उनका काम है मुझे माफ़ करना ,
और मेरा धर्म गलती करना ।
जैसे सबने मुझे माफ़ करने का ठेका ले रखा हो !
पर मैं ऐसा क्यों सोचता हूँ ?
मैं सोचने के लिए थोड़े ही बना हूँ ।
मैं पैदा हुआ हूँ बुरे काम करने के लिए ,
औरों को मार कर भी जीने के लिए ।
अपने चाहने वालों का दिल दुखाने के लिए।
क्योंकि मैं इंसान नहीं गलतियों का पुलिंदा हूँ ।
हलाँकि मैं अपने आप पे शर्मिंदा हूँ पर ॥
अफ़सोस मैं फिर भी ज़िंदा हूँ !
मैं बेशर्म हूँ इस लिए ज़िंदा हूँ ,
वरना ,
शर्म होती तो कब का मर जाता
न बेटी के आगे शर्मिन्दा होता ।
न चाहने वालों से मुंह छुपाता ।
न किसी का चैन छीनता
ना किसी के आंसुओ पे मुस्कुराता ।
काश मैं अपनी गलतियों पे सचमुच शर्मिंदा होता
तो मैं गलतियों का पुतला नहीं इक इंसान होता !

2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

रचना में अच्छा आत्ममंथन किया है।बढिया!

Anonymous said...

paramjeet bali ji ,
hauslaa afzaaie ke liye dhanywad !