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Saturday, March 15, 2008

क्यों और किसलिए ?

क्यों और किसलिए ?
क्यों और किसलिए ?
उसे तोहफा दिया तो ,
वो बेहद हैरान सी होकर बोली ,
इतने रूपये और तुम !
भला क्यों और किसलिए ?
क्या तुम्हारी धड़कन नहीं बढ़ी ?
ये तुम्हारे हाथ से छूटे कैसे ?
जो शख्स तीन रूपये बचाने के लिए ,
चार किलोमीटर पैदल घिसटता है .
पैसे की मोहब्बत में ,
बहन के घर जाने से भी बचता है ,
वो मुझे तीन हजार कैसे दे सकता है ?

मैं यही सोचकर हैरान हूँ !
बेशक तुम सही कहती हो ,
बेशक मैं कंजूस सही !
या कहो तो मख्खिचूस सही !

बेवजह क्या बा वजह भी खर्चने से डरता हूँ !
शायद इसीलिए थोडा बचाने के लिए मीलों चलता हूँ .
लेकिन मेरे सीने में इक दिल धड़कता है ,
उसमे मेरे अरमान व अहसासात का मसीहा बसता है .
वहाँ मेरी भावनाओं की लहर मचलती हैं .
एक पावन सी सूरत बन के शमां जलती है
धन तो क्या ये तन और मन भी उसका है

उसकी खातिर मेरा सब कुछ निछावर है

एक मेरी ज़रूरत है और दूसरी श्रद्धा .
और इन दोनों में इतना अंतर है ,
कि ज़रूरत को कर सकता हूँ सीमित ,
और श्रद्धा तो है असीम,अपार अपरिमित !
इसलिए .......
एक से बचाई दौलत सारी ,
दूसरी पर कुर्बान है !
और सच कहूं तो ,
यही इस माटी का
सच्चा बलिदान है !
तुम मेरी श्रद्धा हो और वो ज़रूरत !
और मेरे लिए श्रद्धा ज़रूरत से महान है !

Friday, March 07, 2008

होली

फ़िर फागुन आया है यारों !
फ़िर आई है होली ।
भूल के सारे भेदभाव को
खेलेंगे हम होली ।
गोरा हो या काला कोई
सब को मलें गुलाल ,
रंग भेद मिट जाएं
सारे कर दें लालमलाल
सबको गले लगाके
खेलेंगे हम होली ।
सदियों पहले रूठ गई जो
भीड़ भाड़ में छूट गई जो
शायद अब के फागुन में
वो भी आए खोली में
अपने रंग में रंगने उसको
खेलेंगे हम होली।
अब तक जिससे कभू ना बोले
प्यार का राज कभू ना खोले
म्हारे घर के आगे से जब ,
गुजरेगी वो हौले-हौले
मारेंगे उसपे पिचकारी
खेलेंगे हम होली ।
सारी नफरत मिटेंगी अब के
दुश्मन भी गल मिलेंगे अब के ।
छोट बडाई सभी मिटेगी ,
सब तकरार मिटेंगे अब के ।
सब को प्रेम के रंग में रंगने
खेलेंगे हम होली

वेश्या

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
वेश्या !
ऐसी औरत रेल की पटरी की तरह होती है ,
जो ताउम्र भीड़ में रहकर भी तनहा होती है ,
गर्मी और सर्दी , उसके जीवन में दो ही मौसम होते हैं ।
गर्मी आती है to वो अपनी टाँगे फैला लेती है ,
और सर्दी आती है तोअपनी टाँगे सिकोड़ लेती है ।
लोग उसकी ज़िंदगी में रेल की तरह आते हैं ,
जो उसको बेसाख्ता रोंदते हुए बढ़ जाते हैं ।
जब उनका जी करे वो इसको झिन्झोड़ते हैं ,
और जब इसका मन चाहे तो ये ख़ुद को झिंझोड़ लेती है ।
ऐसी औरत रेल की पटरी की तरह होती है !

वेश्या !

वेश्या !
ऐसी औरत रेल की पटरी की तरह होती है ,
जो ताउम्र भीड़ में रहकर भी तन्हा होती है ,
गर्मी और सर्दी ,
उसके जीवन में दो ही मौसम होते हैं ।
गर्मी आती है तो वो अपनी टाँगे फैला लेती है ,
और सर्दी आती है तोअपनी टाँगे सिकोड़ लेती है ।
लोग उसकी ज़िंदगी में रेल की तरह आते हैं ,
जो उसको बेसाख्ता रोंदते हुए बढ़ जाते हैं ।
जब उनका जी करे वो इसको झिन्झोड़ते हैं ,
और जब इसका मन चाहे तो ये ख़ुद को झिंझोड़ लेती है ।
ऐसी औरत रेल की पटरी की तरह होती है !
ऐसी औरत रेल की पटरी की तरह होती है !

दोस्तों अपनी नई कविता पर आपकी बेबाक टिपण्णी का मुझे इंतज़ार रहेगा !

प्रदीप कुमार baliyan

Tuesday, March 04, 2008

एक घर

दो जहाँ की सारी खुशियाँ छोड़ दूँ ,
पल भर मुस्कान ये मिल जाए गर ।
ईंट -पत्थर के मकां सब छोड़ दूँ ,
एक घर जंगल main भी मिल जाए गर .

हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे - अन्तिम

हाँ ! हाँ ! हाँ मैं तुम पर कविता लिखूंगा ।
माना तुमने है ज़हर पिया और विष पीकर भी ज़िंदा हो ।
बेशक धोती हो पाप बहुत लेकिन फ़िर भी तुम गंगा हो ।
ये दर्द जिन्होंने बख्शे हैं ,तुम उनकी चिंता करती हो ।
जो ग़लत किया है औरों ने , तुम उसपे क्यों शर्मिंदा हो ।
उस कीचड मैं हो धंसी हुई दुनिया को छोटी मान रही ।
लेकिन कुछ अब भी है बाकी तुम इसीलिए तो जिंदा हो ।
ये बेशक रात अँधेरी हो , ना हाथ को हाथ सूझता हो ।
याद करो उस ताकत को , तुम जिसका एक पुलिंदा हो ।
तुम आंधी हो , एक आफत हो , तुम चंडी हो , तुम दुर्गा हो ।
तेरा दुःख नारी का दुःख है , है इसीलिए इतना भारी ।
कहने को दो घर की मालिक ,देहरी पे ही रहे बेचारी ।
आते जाते ठोकर मारे , दुखिया है किस्मत की मारी ।
लेकिन तुम जीवन सरिता हो , मैं तेरे गम में रहता हूँ ।
सारी पीड़ा , सारे गम , मेरे हमदम मुझको दे दो ।
खुशियों से भर लो दामन , अपने सब गम मुझको दे दो ।
तेरी पीड़ा , तेरे गम , तेरी सिसकी ,तेरी आहें ।
उन सबकी खातिर इस दिल में हैं शब्द बहुत ।
लेकिन उन शब्दों को जब में कागज़ पर लिखने लगता हूँ
तेरे आँसू के दरिया में ,हर्फ़ सभी बह जाते हैं
लेकिन वो सारे आंसू , मुझको बस अपने लगते हैं
तुम ही मेरी कविता हो , मुझसे ये कहने लगते हैं .

हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे -९

गम की आग में जलकर जच्चा , रो-रो कर बेहाल हुई फ़िर ।
भूख प्यास सब हो गई गायब , सूखा-सा कंकाल हुई फ़िर ।
जिसने मुझको था गम बख्शा , मजबूरी में उसे पुकारा ।
मुझे बचा लो मेरे साजन ,मुझे संभालो मेरे साजन ।
उस जालिम के दिल में जाने , थोडी सी दया चली आई ।
बस मेरा इलाज करा कर ,मुझ दुखिया की जान बचाई ।
माँ जैसी उस सास को भी , मेरे गम का अहसास हुआ ।
बच्ची को हम कहीं ना देंगे अपनेपन से ये उसने कहा।
उसके मुश्ताक्बिल की चिंता , मेरे जर्जर यौवन को
तुम शब्दों में क्या लिखोगे ?
कैसे तुम कविता लिखोगे ?
हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे ...

हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे - 8

त्योहारों की दस्तक से ही , होती है मुझको घबराहट ।
मदिरा के लंबे दौर के संग , वो जुएबाजी की टकराहट ।
इस घर मैं त्योहारों के , देखे मैंने दस्तूर नए ।
वो पैमानों के दौर नए , वो बाजी के दौर नए ।
इधर छलकती आँखें हैं , और उधर छलकते पैमाने ।
है इधर तमन्ना मन्दिर की , वो बना रहे हैं मैखाने .
जब सारी दुनिया हंसती है हम घर मैं घुट ते रहते हैं ।
वो कहते हैं खुशियाँ उनको , हम दिन रात बिलखते रहते हैं ।
खुशियों से घबराहट को ,रिश्तों की टकराहट को ।
नीर बहाती आंखों को , नज़रों में छुपी हिकारत को ।
जो बीत गए उन लम्हों को ,जो गुज़र रही उस लानत को ।
तिल-तिल कर इस जलने को ,मुझ दुखिया की इस हालत को ,
तुम शब्दों में क्या लिखोगे ?तुम क्या मुझपे कविता लिखोगे ?
हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे

हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे -8

बच्ची को जनने की पीड़ा , कमसिन माँ बनने की पीड़ा ।

बचपन को खोने की पीड़ा ,को बोलो तुम क्या लिखोगे ?

हूँ तुम मुझपे कविता लिखोगे !

कोख मेरी बसने से पहले ,वो उसका सौदा कर बैठा ।

बच्ची या बच्चा हो कुछ भी ,देने का वादा कर बैठा ।

मेरे गम से मूँद के आँखें ,औरों का गम उसको भाया ।

कोख मेरी और वादा उसका , जी हाँ मैंने नहीं निभाया ।

यूँ तो मैं सब कुछ सह लेती , पर बच्ची देना ना भाया ।

कुछ पाने की खुशियाँ और सब कुछ खोने की पीड़ा

को शब्दों मैं क्या लिखोगे ? कैसे तुम कविता लिखोगे ।

हूँ तुम मुझपे कविता लिखोगे !

हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे - 7

जाने कोख भरी फ़िर कैसे , सूनी सेज सजी हो जैसे ।
पतझड़ के उस जीवन में, नई बहारें आई जैसे ।
लेकिन मेरा भाग है खोटा, खुशी भी पल में खो जाती है ।
इक खुशी के पीछे एक दुःख , देर तलक अँखियाँ रोती हैं ।
जो नही जन्मा अब तक जग में , उसे दान में दे आया वो ।
खुशियों की आहट से पहले , खुशी दान में दे आया वो ।
जब वो नन्हीं घर में आई , उसे देखकर में मुसकाई ।
पेर ये खुशी भी पल भर की थी,पल में अँखियाँ फ़िर भर आई ।
वो जिस घर जाने वाली थी ,वहाँ भी एक शैतान था रहता ।
वो तो इससे भी बढ़ कर था ,नशा , ऐब सब में बढ़कर था ।
क्या होगा नन्ही सी जाँ का , क्या होगा नन्ही -सी माँ का ।
यही सोचकर रोती रहती, लहू टपकता था आंखों से ।
मेरे अब , बच्ची के कल की चिंता को शब्दों में ...
कैसे लिखोगे ?
कैसे तुम कविता लिखोगे ? हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे

हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे - 6

सूनी अंधियारी रातों में गुम हुई वो नन्ही गुडिया ।
भूल गई सब उछल-कूद अब ,क़ैद हुई वो छोटी चिडिया ।
सारी खाहिश दूर हुई हैं सपने चकना चूर हुए हैं ।
रंग नही कुछ इस जीवन में ,बेरंग है ये सारी दुनिया ।
मतलब की ये सारी दुनिया ,लगती है बेगानी दुनिया ।
अपना नही नज़र आता है ,सपना भी अब गैर लगे है ।
छोटी सी चिडिया को अब ,सारे जग से बैर लगे है ।
दिल के इक कोने में लेकिन , इक हसरत है अब भी बाकी ।
दर्द-ओ -गम के इस आलम में ,अब भी है कुछ ज़िंदा बाकी ।
तोड़ के इन सारे पिजरों को ,दूर गगन में मैं उड़ जाऊं ।
सब कुछ हो रंगीन वहाँ पर , इन्द्रधनुष पे मैं इठलाऊँ ।
टूटे सपने , छूटे अपने ,जिंदा हसरत , रंग की चाहत
को शब्दों मेंक्या लिखोगे? हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे

हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे -5

रोज वो पीकर घर में आता ,जाने क्या-क्या करके आता ।

वो बदबू मैं शब भर सहती , तकिये पे मुंह धर कर रोती।

गीले तकिये से ये कहती ,काश ! मुझे वो अपना कहता .

बांहों में वो अपनी भर के , मुझको अपना सपना कहता .

रस्म एक करके वो पूरी ,मुंह उधर करके सो रहता .

दो जिस्मों के बीच में पसरी ,मीलों लम्बी रही वो दूरी .

वो बदबू वो सूनी रातें , सूनी बाँहें , सूने सपने .

दो जिस्मों के बीच वो रिश्ता , वो आँखों से लहू जो रिसता.

उन सबको तुम क्या लिखोगे ? हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे !

हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे -3

फ़िर अचानक ...
पन्द्रह बरस की नन्ही गुडिया ,
पल भर में बन गई बहुरिया ।
शादी की वो पहली रात ,
हाँ हाँ वही सुहाग की रात ।
शादी की उस पहली रात ,
उसकी मर्दों वाली बात ।
बोला वो फख्र के साथ ,
सोया है किस-किस के साथ ।
उसकी गन्दी जूठन मैंने ,
कैसे चखी सारी रात ।
वो सिसकी , वो दर्द , वो आहें ,
शब्दों में कैसे लिखोगे ?
कैसे तुम कविता लिखोगे ?
हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे

४-
कितनी रातें जग कर काटी ,
कितनी रातें रोकर काटी ।
मैंने तनहा हो कर काटी,
अपने सपने खोकर काटी ।
इंतज़ार रहता उस पल का ,
कब वो कहेगा मुझको अपना ।
क्या होता है प्यार पति का ,
आया ऐसा कभी ना सपना ।
सपना आख़िर कैसे आता ,
नींद नही थी जब आंखों में ।
दर्द भरा था मेरे दिल में ,
दर्द छलकता था आंखों में ।
उस इंतज़ार , उस बेकरार , उस दर्द ओ गम को ।
शब्दों में कैसे ढालो गे ? कैसे तुम कविता लिखोगे ?
हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे

हूँ ! मुझपे कविता लिखोगे -2

सब जब मुझको सजा रहे थे
गहने कपड़े पराह रहे थे ।
अच्छा है कुछ होने वाला ,
कुछ लक्षण ये बता रहे थे ।
मैं भोली नादाँ ना समझी ,
आफत की पहचान ना समझी ।
कि अंधड़ ओ तूफान से पहले ,
।थोडी सी बूँदें आती हैं ।
अनहोनी होने से पहले ,
हमसे कुछ कहना चाहती हैं ।
आने वाले गम की आहट,
खुशियों के खोने की सासत ,
को शब्दों में क्या लिखोगे ?
हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे

हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे 1

अल्हड़पन को छोड़ के इक्दम मैं इस घर मैं आई ,
खेल सभी छूटे बचपन के छूटे सारे बन्धु भाई ,
छूटा वो फ़िर उधम मचाना फुदक-फुदक कर आना-जाना ,
बेमतलब वो शोर मचाना इसे सताना उसे सताना ,
लड़कों जैसे दिन भर रहना जिम्मेदारी ना बाबा ना ।
खेल तमाशे छुपा छुपी के उछलकूद वो अल्हड़पन की
शब्दों में कैसे ढालो गे ? सभी शरारत वो बचपन की !
हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे !

Monday, March 03, 2008

एक अधूरी बहस

उसने मुझसे कहा !
क्यों है सोया हुआ ? कहाँ खोया हुआ ?
क्यों तू मायूस है ? ये तुझे क्या हुआ ?
खोल आँखें ज़रा , यूं न नज़रें चुरा ,
देख ये ज़िन्दगी कितनी रंगीन है ....
मैंने उस से कहा !
न मैं खोया हुआ , ना हूँ सोया हुआ ,
ज़िन्दगी के ये रंग , कितने रंग हीन हैं ,
दुनिया ग़मगीन है इसलिए हूँ उदास ,
और में हूँ मायूस ये मुझे है हुआ .
उसने मुझसे कहा !
ज़िन्दगी है पतंग , जाने कितने हैं रंग ,
जैसे तितली कोई , रंग बिरंगी सी है ।
ज़िन्दगी है ये क्या , कोई इन्द्र धनुष ,
हर तरफ इसमें रंगों की खुशबू सी है .
मैंने उस से कहा !कागजी सारे रंग ,
ना ख़ुशी ना उमंग ,ज़िन्दगी कागजी जैसे कागज़ की नाव ।
आये गम की नदी तो डूब जाती है ये,
मीलों लंबा सफर , ना कोई ठहराव ।
उसने मुझसे कहा !ज़िन्दगी है सफर ,
हंस के आगे तू बढ़ ,आगे मंजिल तेरी हौसले से तू चढ़ ।
थक के यूं ना तू बैठ ,इन दुखों के उधर है सुखों का पहाड़ .
ज़िन्दगी है सजा ...नहीं ये है मज़ा ।
ज़िन्दगी राग है ...ये कोई आग है ।
ज़िन्दगी शोज़ है ...ये तो बस शोग है ।
ज़िन्दगी साज़ है ....ये तो खटराग है ।
ज़िन्दगी है कली....ये है अंधी गली ।
इक सहेली है ये ...जी पहेली है ये ।
बढ़ के थाम इसका हाथ ...ऐसी अनजान का कौन ठामेगा हाथ ।
ज़िन्दगी मां की गोद ....ये है बूढे का बोझ ।
ज़िन्दगी है वफ़ा ....जी नहीं बेवफा ।
उम्र भर दे ये साथ ...छोडे पल में ये साथ ।
उसने मुझसे कहा !सुन रे
नादान तू !
ज़िन्दगी आइना ,तेरा ही अक्श तो इसमें ....आता नज़र ।ये तुझे ना खबर ।ज़िन्दगी जीनी गर इस से समझौता कर . इस से समझौता कर . इस से समझौता कर !

उनकी तारीफ

उठती नहीं नज़र तेरे हुस्न की तरफ ,
तारीफ क्या करूं उस माहताब की ।
सारे जहाँ का नूर तुझी में समां गया,
तारीफ क्या करूं उस आफताब की ।
मेरे लिए हसीं हो सारे जहान से ,
तारीफ किस तरह करूं कहिये जनाब की ।
तुम सर से पाँव तक किसी जन्नत का खवाब हो ,
तारीफ क्या करूं हुस्न-ए- लाजवाब की ।
परियों के देश से कोई उतरी है अप्सरा ,
हर अंग से उट्ठे है किरण महताब की ।
चुन्धिया गई नज़र उठते ही जब प्रदीप
उठेंगी किस तरह ये जानिब जनाब की .

तुम्हारे जन्म दिन पर

तुम्हारे जन्म दिन पर ,
चाँद ,सूरज और सितारे ,
मैं तुमको दे नहीं सकता ।
तुम्हारे जन्म दिन पर ,
चमन के फूल , खुशबू और नजारे ,
मैं तुमको दे नहीं सकता ।
ये सब कुदरत की हैं नेमत ,
ज़माने भर की खातिर हैं ।
न उनको पाना चाहोगी ,
जो ज़माने भर की खातिर हैं ,
सभी की छीन कर दौलत ,
मैं तुमको दे नहीं सकता ।
तुम्हारे जन्म दिन
पर किसी की छीन कर खुशियाँ
मैं तुमको दे नहीं सकता ।
पर ..............
मेरी खुशियाँ , मेरे सपने ,
मेरे अरमान सारे हैं तुम्हारे ,
मेरा ये दिल जिगर और जान,
सभी कुछ हैं तुम्हारे।
मेरा हर शब्द , हर शेर और कविता
मेरी तहरीर सारी है तुम्हारी ।
मेरा माजी, मेरा हासिल ,
मेरी किस्मत ,सभी कुछ हैं तुम्हारी ।
मेरी हर चीज पर लेकिन ,
है पूरा हक तुम्हारा ।
तुम्हारे वास्ते हूँ मैं

मेरा सब कुछ तुम्हारा ।
तुम्हारे जन्म दिन पर
जो मेरा है वही मैं देना चाहता हूँ ,
मेरी खुशियाँ मिले तुमको ये कहना चाहता हूँ ।
रहो तुम उम्र भर खुश ,
मेरी खुशियाँ तुम्हारी हों
वो सारे गम मिले
मुझको
जो तेरी खुशियों पे भारी हों
तुम्हारे जन्म दिन
पर
बस दुआ ये देना चाहता हूँ
मैं तेरे आंसू के बदले में ,खुशियाँ

सभी देना चाहता हूँ ।