त्योहारों की दस्तक से ही , होती है मुझको घबराहट ।
मदिरा के लंबे दौर के संग , वो जुएबाजी की टकराहट ।
इस घर मैं त्योहारों के , देखे मैंने दस्तूर नए ।
वो पैमानों के दौर नए , वो बाजी के दौर नए ।
इधर छलकती आँखें हैं , और उधर छलकते पैमाने ।
है इधर तमन्ना मन्दिर की , वो बना रहे हैं मैखाने .
जब सारी दुनिया हंसती है हम घर मैं घुट ते रहते हैं ।
वो कहते हैं खुशियाँ उनको , हम दिन रात बिलखते रहते हैं ।
खुशियों से घबराहट को ,रिश्तों की टकराहट को ।
नीर बहाती आंखों को , नज़रों में छुपी हिकारत को ।
जो बीत गए उन लम्हों को ,जो गुज़र रही उस लानत को ।
तिल-तिल कर इस जलने को ,मुझ दुखिया की इस हालत को ,
तुम शब्दों में क्या लिखोगे ?तुम क्या मुझपे कविता लिखोगे ?
हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे
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