जो बनने और सँवरने को  बचपन का खेल समझती थी
उस बाल वधू के सपने कैसे , कलियों की तरह गए मसले ।
जिसमें मेरे अरमान जले वो आग हवस की कैसी थी ?
गुड्डे गुडिया का खेल वो कब , कुछ पल में आफत बन बैठा
ये खेल जिस्म का ऐसा जो मेरी जान की सांसत बन बैठा ।
जब सब कुछ मैंने खोया था वो रात न पूछो कैसी थी ?
उस रात में सब कुछ खोकर भी हासिल मुझको कुछ भी न हुआ
नैनों से नीर बहाकर भी ये चाक जिगर रफू  न हुआ ।
मैं क्या थी और क्या बन बैठी, क्या पाकर कितना लुटा बैठी ?
बेदिल से होती क्रीडा का , सब कुछ खोने की पीडा का  ।     पहले सारा तुम हाल सुनो !
आते ही मुझ  पर    कुछ उसने ,ऐसा रोब जमाया था
मेरा तन मन उसका है ऐसा अहसास कराया था ।
एक बाज़ की भांति उसने फिर ,मुझे नोच-नोच कर खाया था
बकरी और शेर के किस्से को ऐसे उसने समझाया था
वो उसकी गरम-गरम साँसे बदबू और सडन भरी साँसे          मेरी साँसों से टकराती थी ।
नन्ही चिडिया बिन पंखों के फिर उस जालिम के पंजों में           बेबस सी छट पटाती थी !
औरत और मर्द का ये रिश्ता अब तक न जो समझती थी ,
माँ -बाप  और भाई बहनों के रिश्ते वो फ़क़त समझती थी ।
लेकिन उस रात ने फिर मुझको कुछ ऐसा पाठ पढाया था
जो अब तक मैंने सीखा था कुछ पल में हुआ पराया था
उसे देख के मेरी सिहरन का दर में बढ़ती उस धड़कन का ,
बिन फूल बने ही कुचलने का, वो पल पल चीख निकलने का ,           पहले सारा तुम हाल सुनो !
वो रात न जाने कैसी थी , खुशियों पर कालिख मल बैठी ,
इक नन्हीं गुडिया कुछ पल में एक पूरी औरत बन बैठी ।
बच्ची से औरत होने में , कुछ पल में सब कुछ खोने में ,
एक शेर की मंद में सोने में , उस सिसक सिसक कर रोने में ,
कितने दुःख मैंने झेले हैं पहले सारा वो हाल सुनो !
फ़िर कहना तुम उस पीड़ा को ,
कमसिन लड़की कि क्रीडा को ,
दिन रात टपकते आँसू को,
झर-झर बहते उन झरनों को ,
आंखों से छिन्न ते सपनो को
बेगाने होते अपनों को
शब्दों में कैसे लिक्खोगे
कैसे तुम कविता लिक्खोगे ?
हूँ , तुम मुझ पे कविता लिक्खोगे !
![[lock2.bmp]](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhXgUWgEg5i7Hjk49lYgKlp2Wns2wHjtEylFNmlRZ2PA9hhdWx9zV9uap5jRaXgwEUeZr9KSsdj_Nf9NnD7yEekcZuD5uy4_-BwhPrpiqTld3U1wsy4Q-c_DrDYwIk6yN7SGfBvz97qprY/s1600/lock2.bmp) 
 
 
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