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Sunday, November 02, 2008

ग़ज़ल

सदियों बाद सुनी जो मैंने प्यारी सी आवाज़ ,
दिल ने चाहा क्या क्या कहना निकली न आवाज़ ।
जबां में लर्जिश और बात में तक़ल्लुफी थी हावी ,
कुछ मत पूछो यार हमारी खामोशी का राज़ ।
और सुनाओ और सुनाओ कैसे हो तुम यार ,
इन तक सारे प्रश्न थे सिमटे सुनकर वो आवाज़ ।
उनसे बात ही तो अपना फ़ोन हो गया बंद ,
मानो रहा न कुछ भी बाकी सुनकर वो आवाज़।
शर्म से चेहरा सुर्ख और हम हक हकलाते थे ,
ऐसा था कुछ हाल हमारा सुनकर वो आवाज़।
शहद टपकता था कानों में और ज़हन था सुन्न,
ऐसा था कुछ हाल हमारा सुनकर वो आवाज़ ।
वही खनक, वही धनक और वैसा ही था साज़ ,
सदियों बाद सुनी जो मैंने दिल की वो आवाज़।
मुद्दत से जिसको सुनने को बेकल था प्रदीप,
पानी पानी आज हुआ है सुनकर वो आवाज़ .

Saturday, October 25, 2008

ग़ज़ल

रोज़ तिल से पहाड़ होती गलती,
शुक्र ये कि अब नहीं होती गलती।
कोई अपना जो मुझसे रूठा है ,
अब ये दुनिया ही कुछ नहीं लगती ।
माफ़ी की अब भी है मुझे उम्मीद ,
बेशक वो थी बहुत बड़ी गलती।
मैं अगर देखता भी रहूँ मुड़कर ,
ज़िन्दगी किसी तरह नहीं थमती ।
आज भी उसकी जुस्तजू है मुझे ,
जिसकी कोई खबर नहीं मिलती ।
बंदिशें खुद ही लगाई हैं मैंने ,
कैसे तोडूं वजह नहीं मिलती ।
वो मेरे दिल में अब भी रौशन है ,
जिसकी सूरत भी अब नहीं दिखती ।
आग कुछ ऐसी लगाई थी मैंने ,
किसी सूरत भी जो नहीं बुझती ।
अपनी लाचारी क्या कहूं तुमसे ,
दिल तो चाहे, जुबां नहीं हिलती ।
दिल की बातें किसे कहे प्रदीप ,
अब तबीयत कहीं नहीं मिलती .

Friday, October 24, 2008

ग़ज़ल

मैं जो बैठा तन्हाँ तो आँख भर आई ,
हर तरफ अपनी ही खता नज़र आई ।
बाद मुद्दत भी तेरी गलियों में ,
वो ही रंगत मुझे नज़र आई ।
कोई झाँका जो आके छजली पे,
तेरी सूरत मुझे नज़र आई ।
देर तक बैंच पर मैं बैठा रहा,
जाने क्या सोच आँखें भर आई ।
याद करके वो गुजरी सब बातें ,
अपनी गलती ही बस नज़र आई।
कोई मिस काल जब भी आती है ,
मुझको लगता है तेरी काल आई ।
आइना अब भी है वही मगर ,
कोई सूरत नहीं नज़र आई ।
जब भी नाउम्मीद होता है प्रदीप ,
उसको सूरत-ए-सिया नज़र आई .

Monday, September 22, 2008

ग़ज़ल

मेरी सुबह तुमसे मेरी शाम तुमसे ,
अब है ज़िन्दगी का हर काम तुमसे ।
तुझे देखता हूँ तो लगता है ऐसे ,
कि बरसों से अपनी है पहचान तुमसे ।
धड़कता है दिल तो तेरा नाम आये ,
लो अब जुड गया है मेरा नाम तुमसे ।
हर एक शै में तेरा नज़र अक्श आये ,
अब आगाज़ तुमसे और अंजाम तुमसे ।
अब ये दिल भी तेरा, है प्रदीप तेरा ,
सिवाए मोहब्बत के न कुछ काम तुमसे .

Thursday, August 28, 2008

ग़ज़ल

दर्द आँखों में सिमट आया है ,
जाने कौन मुझे याद आया है ।
किस कदर ज़िन्दगी हुई तन्हाँ ,
हमसफ़र है न कोई साया है ।
कुछ तो मेरी खता रही होगी ,
उसने मुझको अगर भुलाया है।
जब बातें नहीं कोई उनसे ,
अपना साया हुआ पराया है।
उम्र भर कौन साथ देता है,
दिल को ऐसे ही अब मनाया है ।
जाने किसकी तलाश में प्रदीप ,
तूने अपना ही दिल जलाया है .

Sunday, August 17, 2008

ग़ज़ल

ठोकरें खाता है यां इंसान रोज़,
यूं दुखी रहता है यां इंसान रोज़ ।
आ गया तो खूब कर लो आ भगत ,
अब कहाँ आता है घर मेहमान रोज़ ।
मुद्दत हुई सीधी नहीं की बातचीत ,
पर खयालों में बहस होती है रोज़ ।
देखी हैं मैंने हसीनाएँ बहुत पर ,
आपमें कुछ और ही देखा है शोज़ ।
उड़ते फिरना आज़ाद पंछी की तरह ,
छोडो भी अब कहाँ है ऐसी मौज ।
हम भी सजधज कर चले बहना के घर ,
बाद मुद्दत के है आई भईया दौज ।
माँ की ममता अब हुई है खाब इक ,
जाने किस नफरत में जीते हैं अब रोज़ ।
मौत भी तो हो गई है खाब अब ,
ज़िन्दगी का ढ़ो रहा हूँ कब से बोझ ।
अपने दिल की कुछ नहीं कहता है वो ,
इक शिकन माथे पे बढ़ जाती है रोज़ ।
जाने ये कैसे गृहस्थी है प्रदीप ,
नित नई सी नोंक झौक रोज़ रोज़ ।

Monday, July 28, 2008

ग़ज़ल

ठोकरें खाता है यां इंसान रोज़,
यूं दुखी रहता है यां इंसान रोज़ ।
आ गया तो खूब कर लो आव भगत ,
अब कहाँ आता है घर मेहमान रोज़ ।
मुद्दत ही सीधी नहीं की बातचीत ,
पर खयालों में बहस होती है रोज़ ।
देखी हैं मैंने हसीनाएँ बहुत पर ,
आपमें कुछ और हाय देखा है शोज़ ।
उड़ते फिरना आज़ाद पंछी की तरह ,
छोडो भी अब कहाँ है ऐसी मौज ।
हम भी सजधज कर चले बहना के घर ,
बाद मुद्दत के है आये भईया दौज ।
मान की ममता अब ही है खाब इक ,
जाने किस नफरत में जीते हैं अब रोज़ ।
मौत भी तो हो गी है खाब अब ,
ज़िन्दगी का धो रहा हूँ कब से बोझ ।
अपने दिल की कुछ नहीं कहता है वो ,
इक शिकन माथे पे बढ़ जाती है रोज़ ।
जाने ये कैसे गृहस्थी है प्रदीप ,
नित नई सी नोंक झौक रोज़ रोज़ .

ग़ज़ल

आदमी कितना यहाँ मज़बूर है ,
रिश्तों की ज़ंजीर में मज़बूर है ।
आदमी कितना यहाँ मजबूर है ,
हर कोई मंजिल से अपनी दूर है ।
ज़िन्दगी में कुछ नहीं हासिल मगर ,
आदमी कितना यहाँ मग़रूर है ।
जिसके दामन में भरा है जितना झूठ ,
वो आदमी उतना यहाँ मशहूर है ।
बाद मेहनत के भी जो है फ़ाक़मस्त ,
शर्तिया वो आदमी मज़दूर है ।
प्रदीप क्यों बदले वफ़ा का चलन ,
गर बेवफाई दुनिया का दस्तूर है .

Sunday, July 20, 2008

ग़ज़ल

इस तरह उलझा हुआ हूँ दुनियादारी में ,
अपनी सुध-बुध खो चूका हूँ दुनियादारी में ।
जाने उसकी किस अदा से मैं हुआ घायल ,
कितने सारे पेंच-औ-ख़म हैं तेग-ऐ-दुधारी में ।
भ्रूण हत्या का हुआ है देखो ये अंजाम ,
बस आदमी ही रह गए मर्दुमशुमारी में ।
आँख उठाते ही सभी शर्म-औ-हया जाती रही ,
अब छुपाने को रहा क्या पर्दा दारी में ।
कौन कहता है न खाए हमने ज़ख्म ,
धुल गए हैं यार की सब गमगुसारी में ।
खू के रिश्तों से तो दिल के रिश्ते हैं भले ,
ठोकरें ही खाई हमने रिश्तेदारी में ।
गर्त से मुझको उबारा मेहरबानी आपकी ,
वरना में भी जलता रहता बेकरारी में ।
साफगोई इस जहां से उठ गई ऐ प्रदीप ,
झूठ , मक्कारी बची बस दुनियादारी में .

अफ़सोस

अफ़सोस मैं फिर भी ज़िंदा हूँ !
इंसान नहीं मैं गुस्ताखियों का पुलिंदा हूँ ,
रोज नई नई गलतियाँ करता हूँ ,
अपने बुरे कामों का बोझ किसी पे
लादकर और बेशर्मी की चादर ओढ़कर ,
थोडी सी गर्दन झुका कर
बेगैरत होकर माफ़ी मांग लेता हूँ -जी मैं अपनी गलती पे शर्मिंदा हूँ ,
इंसान नहीं मैं गुस्ताखियों का पुलिंदा हूँ !
अफ़सोस मैं फिर भी ज़िंदा हूँ !
रात गई तो बात गई ,
फिर दिन निकला वही बात हुई ,
फिर वही झूठ फिर वही झमेला ।
कभी किसी का छीन अपने में डाला ,
कभी अपना भरने को उसे खंगाला .।
छीना झपटी लूट खसूट ,
मुझको भाता झूठ ही झूठ ।
सफल रहा तो किस्मत अपनी ,
वरना फिर बोलूँगा झूठ ।
जी बहुत मजबूर हूँ ,
अपनों से बहुत दूर हूँ
कोई मुझे काम नहीं देता
इसलिए पेट भरने के लिए बुरे काम करता हूँ ।
इस बार माफ़ कर दो आइन्दा ऐसा नहीं करूंगा ।
सच कहता हूँ मैं बहुत शर्मिंदा हूँ ।
इंसान नहीं मैं गुस्ताखियों का पुलिंदा हूँ !
अफ़सोस मैं फिर भी ज़िंदा हूँ !
जो मुझे समझाते हैं उनका क्या ?
उनका काम है मुझे माफ़ करना ,
और मेरा धर्म गलती करना ।
जैसे सबने मुझे माफ़ करने का ठेका ले रखा हो !
पर मैं ऐसा क्यों सोचता हूँ ?
मैं सोचने के लिए थोड़े ही बना हूँ ।
मैं पैदा हुआ हूँ बुरे काम करने के लिए ,
औरों को मार कर भी जीने के लिए ।
अपने चाहने वालों का दिल दुखाने के लिए।
क्योंकि मैं इंसान नहीं गलतियों का पुलिंदा हूँ ।
हलाँकि मैं अपने आप पे शर्मिंदा हूँ पर ॥
अफ़सोस मैं फिर भी ज़िंदा हूँ !
मैं बेशर्म हूँ इस लिए ज़िंदा हूँ ,
वरना ,
शर्म होती तो कब का मर जाता
न बेटी के आगे शर्मिन्दा होता ।
न चाहने वालों से मुंह छुपाता ।
न किसी का चैन छीनता
ना किसी के आंसुओ पे मुस्कुराता ।
काश मैं अपनी गलतियों पे सचमुच शर्मिंदा होता
तो मैं गलतियों का पुतला नहीं इक इंसान होता !

ग़ज़ल

सब कुछ होते मजबूर न हो ,
इतना भी कोई मजबूर न हो ।
ना खुद की कोई पहचान रहे ,
इतना भी कोई मशहूर न हो ।
जिल्लत सहकर भी जीना पड़े ,
इतना भी कोई मजबूर न हो ।
अपनों से आँख चुरानी पड़े ,
ऐसा भी कोई दस्तूर न हो ।
प्रदीप किसी को तड़पा कर ,
अपने दिल से भी दूर न हो.

ग़ज़ल

मेरा मकसद मेरी मंजिल तुम हो ,
मेरी जुस्तजू की मंजिल तुम हो ।
मेरा माजी औ मुश्तक्बिल हो तुम्ही ,
मेरी हसरतों का हासिल तुम हो ।
यूं तो देते हैं बहुत साथ मगर जो ,
दिल में धड़कती है वो धड़कन तुम हो ।
यहाँ सब हैं मुझको गिराने वाले ,
मेरी जानिब जो हाथ बढाए वो तुम हो ।
अब तक तो जिया यूं ही बेकार जहां में ,
मंजिल है मेरे आगे जब सामने तुम हो ।
प्रदीप अंधेरों में यूं ही जलता रहेगा ,
हिम्मत है मेरे साथ जब तक भी तुम हो

Friday, July 18, 2008

मुक्तक

मेरी ज़िन्दगी में है उससे बहार,
वही है मेरी फसल-ऐ- बहार ।
ऐसे बदली है ज़िन्दगी मेरी ,
जैसे पतझड़ के बाद आये बहार ।
मुझे आज भी है इंतज़ार ,
नहीं आयेंगे ये भी ऐतबार.

मुक्तक

1-
जानिबे नई शहर नज़र उठा ,
नज़र उठा ज़रा मुस्कुरा .
जो गुज़र गया उसे भूल जा ,
उसे भूल जा ज़रा मुस्कुरा .
2-
कुछ रिश्ते बेनाम रहे तो अच्छा है ,
कुछ काम बेंजाम रहे तो अच्छा है .
अपने मुकाल्मे में ऐ हमदम ,
बस तेरा - मेरा नाम रहे तो अच्छा है .
ओट में जिनके हो दगा हासिल ,
ऐसे रिश्तों से अनजान रहे तो अच्छा है .

Wednesday, July 16, 2008

छोटी छोटी बात

दीप से जब मैं पहली बार मिला तो उसके मस्तक की अनगिनत लकीरें साफ़ बता रही थीं कि उसके होटों पे ये मुस्कान बेवजह नहीं है. वह पढ़ा लिखा और औसत कद काठी का सीधा सादा आदमी है . उसे देखने से यही लगता कि उसे ज़िन्दगी से जैसे कोई शिकायत नहीं है .वो मुझे जब भी मिलता हंस के मिलता .उसके होटों पे मैंने कभी चुप्पी नहीं देखी , हमेशा एक मीठी सी हंसी , लेकिन उस हंसी के पीछे भी एक आम आदमी छुपा है और मैं सदा उसी इंसान को तलाशने की कोशिश करता . ये इंसान की फितरत होती है कि वह जो सामने होता है उसे न देखकर उसके पीछे क्या है यह जानने की कोशिश में रहता है . मैं भी तो आखिर एक इंसान ही ठहरा ,इसलिए मैं भी सोचता कि ये हमेशा क्यों हंसता रहता है ? हम दोस्त नहीं हैं मगर अक्सर पीवीआर पर मिलते तो एक दूसरे से खूब बातें होने लगी . हम अक्सर कुछ न कुछ खाते और पैसों के बारे में कभी कोई परवाह न करते . कभी मैं दे देता तो कभी वह .वह कितना संपन्न है मैंने ये जानने की कोशिश नहीं की. वह हमेशा अपने काम और साहित्य के बारे में बात करता . हम पीवीआर पर जैसे यही बात करने आते . मुझे याद नहीं कि उसने कभी यहाँ फिल्म देखी हो लेकिन उसे फिल्मों की अच्छी समझ थी इससे पता चलता कि वह फिल्म भी देखता है .आज भी जब वह मिला तो मैंने आदत के अनुसार पराँठे खाकर पैसे देने चाहे तो उसने जेब में हाथ डाला और पैसे निकालकर दे दिए . मैंने कुछ नहीं कहा और जेब से हाथ निकाल लिया .हम अक्सर यहाँ पराँठे खाने आते . पैसों पर हम कभी बहस नहीं करते ,कभी वो देता तो कभी मैं दे देता . अचानक मैंने देखा कि नीचे कुछ पड़ा है ,मैंने उसे उठाया और जेब में रख लिया . फिर हम थोडी देर घूमे और उसका फ़ोन आया तो वह उठकर चल दिया . उसे शायद कुछ ज़रूरी काम था इसलिए मैंने भी उसे नहीं रोका . मुझे अभी यहीं बैठना था सो मैंने वह कागज़ निकाला और पढने लगा .

वह शायद किसी नाटक के अंश थे . लेकिन नाम पढ़ते ही मैं चौंक गया . पहले ही पात्र का नाम दीप था . अब मुझसे नहीं रहा गया और मैं उस कागज़ को पढने लगा -
दीप - नमस्ते जी !
राजबिरी - नमस्ते बेटा जीता रह !
कैसे हैं आप ? दीप ने पूछा .
ठीक हूँ बेटा - राजबिरी ने कहा .
डॉक्टर ने एक हफ्ते बाद फिर आने को कहा है . वह बोली .
जी ! कह कर दीप अपने काम में लग गया .
मगर ये सन्नाटा ज्यादा देर तक नहीं रहा .
दीप की सास जी हाँ !राजबिरी उसकी सास ही हैं .दोनों जो बात करना चाहते थे उस पर आना चाहते थे . मगर सोच रहे थे कि बात कहाँ से शुरू करुँ . लेकिन दीप की ये मुश्किल जल्दी ही आसान हो गई . उसकी सास ने ही बात शुरू की .
राजबिरी - क्या बात है बेटा ? साफ़ साफ़ बताओ . मैं तो अपने दोनों दामाद को बहुत सराहती हूँ . सोचती हूँ कि दोनों बेटी सुखी हैं .
बात तो कुछ भी नहीं , और मानो तो बहुत बड़ी है . दीप बोला .मुझे ऐसा लगता है कि ये मेरे साथ नहीं रहना चाहती . मैं तो इसे समझाकर थक गया हूँ लेकिन ये समझना ही नहीं चाहती. सुबह नौ बजे उठती है और घर में देखो कैसा गंदा रहता है ? घर की कभी भी डस्टिंग नहीं करती . ऐसा लगता है जैसे होटल में रह रही हो . साफ़ सफाई से जैसे इसे कोई मतलब नहीं . अलमारी में कपडे देखो कैसे ठूंस ठूंस कर भर रखे हैं . प्रेस करने से कोई मतलब नहीं . पलंग के नीचे देखो कितना कबाडा है लेकिन मजाल है अच्छी तरह सफाई कर ले . एक वक़्त रोटी देती है वो भी रोकर . अक्सर तो खाने के वक़्त झगडा कर देती है . फिर तो एक वक़्त से भी कई दिन तक छुट्टी . बोलने की इसको अक्ल नहीं . मेरे साथ तो मेरे साथ मेरे दोस्तों के साथ भी बदतमीजी से बोलती है .दरअसल मैं इससे ऊब गया हूँ . अब तक मैं इसलिए नहीं बोला कि मैं मानता हूँ -
अपने दुःख लेके कहीं और न जाया जाए .
घर में बिखरी हुई चीजों को सजाया जाए .
लेकिन ये तो बिलकुल उलट सोचती है -
अपनी बातों को सरे बाज़ार सुनाया जाए ,
चाहे जैसे इसकी इज्ज़त को उतारा जाए .
पर बेटा ये सब छोटी छोटी बातें हैं . इनको लेकर क्यों घर में कलह करते हो ? राजबिरी बोली .
छोटी छोटी बात ? आपको ये छोटी छोटी बात लगती हैं ? दीप तैश में आकर बोला .
हाँ बेटा . ये बहुत छोटी बात हैं , इनको लेकर क्यों अपनी ज़िन्दगी खराब करते हो ? राजबिरी ने पूछा .
अचानक संजू भी बातों में शामिल हो गई .
संजू कहने को तो दीप की पत्नी है मगर असल में क्या है ये तो भगवान् ही जाने .दीप आज तक नहीं समझ सका कि वह है क्या . अपने पति के काम को उसने कभी अपना काम नहीं समझा . बैंक में चेक डालने के भी पैसे मांगती है . बेचारा रात रात भर काम करता है तब भी बीवी समझती है कि वह रात को किसी और से मिलने जाता है .महीने में कभी भूले भटके कपडों पर प्रेस कर दी तो ठीक वरना पहन लो बिना प्रेस के .
माँ मैंने बहुत सब्र कर लिया . अब मुझसे नहीं सहा जाता . संजू बोली .
दीप - तो मैं भी यही कह रहा हूँ कि इसको समझा लो .ये मैं बहुत मजबूर होकर कह रहा हूँ . आप इसे समझा सकती हैं तो समझाइये वरना मैं अब कहीं और रह लूँगा . इस हालत और इस टेंशन में यहाँ रहना नामुमकिन है . ज्यादा मजबूर किया तो मैं सब कुछ छोड़कर चला जाऊंगा. एक बालक है उसे भी यह अच्छी तरह से नहला नहीं सकती .
तुम तो रह लोगे पर ये कैसे रहेगी ? राजबिरी ने पूछा
मैं तो सब कुछ करती हूँ पर इसे ही समझ नहीं आता . संजू ने जवाब दिया .
एक तो ये बात बात पर तू तड़ाक करती है और लड़कियों की तरह मेरा पहरा देती है . दीप बोला .मेरे सोने के बाद मोबाइल चैक करती है . किसको फ़ोन किया किसको नहीं किया .किसकी मिस कॉल आई ,किसकी कॉल रिसीव की ? उसको सारा हिसाब चाहिए . दीप जैसे आज सब कुछ कहना चाहता था .
देखो बेटा ! राजबिरी बोली -ये बचपन से ही बहुत गुस्सा करती है . हमने इसे कुछ नहीं सिखाया . तुम तो समझदार हो . इसकी ऐसी बातों का बुरा मत माना करो . ये तो छोटी छोटी बातें हैं .
तो आप इसकी बजाये मुझे ही समझा रही हैं . दीप ने आश्चर्य चकित होकर पूछा ?
हाँ बेटा ! ये सब तो चलता रहता है .
माँ ये पैसे मांगते ही लड़ता है - संजू बोली .
तो क्या तुम तू तड़ाक से बात नहीं करती . दीप ने भी पूछा ?
नहीं . वह बोली .
उसके सफ़ेद झूठ को देखकर दीप दंग रह गया .अब दीप समझ गया कि उसकी ये आखिरी उम्मीद भी टूट गई . अब उसे जो कुछ करना है खुद ही करना है . ससुर तो अब रहे नहीं . सासू जी कुछ सुनने को तैयार नहीं . फिर भी वह हिम्मत बटोर कर बोला . ये जब जी में आता है अपने मायके चली जाती है मगर कभी अपने ससुर के घर नहीं जाती . मेरी माँ के लिए इसके मन मैं कोई इज्ज़त नहीं .
क्यों जाऊं मैं वहाँ , जहां मुझे कोई नहीं बुलाता - संजू बोली .
ठीक ही तो कहती है बेटा . ये मेरा अकेलापन दूर करने के लिए चली जाती है . राजबिरी बोली .
अब मैं समझ गया कि सब कुछ फिजूल है . मैंने जिनके लिए रात भर खटकर एक आशियाना लिया वो तो मेरे हैं ही नहीं. उनको ये सारी बातें छोटी छोटी लगती हैं जो मेरा जीना हराम किये हुए हैं .उसने भगवान् से पूछा कि ऐ मेरे मालिक अगर ये छोटी छोटी बातें हैं तो बड़ी कैसी होंगी ? उसने कभी पढा था कि आत्महत्या महापाप है शायद आज तक इसीलिए आत्महत्या के बारे में नहीं सोचा .अब उसने पक्का इरादा कर लिया कि जब तक निभेगा निभाऊंगा और जब बर्दाश्त से बाहर हो जायेगी तो घर दर सब कुछ छोड़कर कहीं दूर चला जाऊंगा .वहाँ , उस दुनिया में जहां ये छोटी छोटी बात न हों !
पूरा कागज़ ख़त्म हो गया था , मैं सोच रहा था कि क्या ये उस शख्स की दास्ताँ है जो मुझे रोज हंसते हुए मिलता है या किसी अधूरे नाटक के अंश ? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था . मैं उससे मिलकर पूछ भी नहीं सकता था . रात बहुत हो चुकी थी इसलिए मैंने कागज़ को जेब में रखा और घर की तरफ चल दिया . लेकिन मेरे पीछे पीछे छोटी छोटी बातें आ रही थी और उनका शोर बढ़ता ही जा रहा था . अब हर तरफ एक ही आवाज़ सुनाइए दे रही थी , हवा की सरसराहट एक ही राग छेड़ रही थी - छोटी छोटी बात

Tuesday, July 15, 2008

तुम न होती तो

तुम न होती तो मैं किधर जाता ,
रेत के घर सा मैं बिखर जाता .
मेरा वजूद न होता जग में ,
किसी ज़र्रे में ही नज़र आता .
तुम मेरी राह ,मेरी मंजिल हो .
बिन तेरे कब का मैं बिखर जाता .
तुमने फिर से मुझे संभाला है ,
वरना सेहरा में ही भटक जाता .
ना कोई मैल होता इस दिल में ,
प्यार से जो तेरे ये भर जाता .
तेरी चाहत में ही रहा जिंदा ,
वरना प्रदीप कब का मर जाता .

Saturday, June 14, 2008

माँ की बरसी न फ़क़त

माँ की बरसी न फ़क़त रस्म ओ राह बन के रहे ,
याद उनकी न फ़क़त रस्म ओ राह बन के रहे .
चलो कुछ ऐसा करें
आँख के आंसू अपने ,
किसी मासूम की
आँखों के बन जाएँ सपने
उनकी याद आये तो
किसी बेबस के लिए
हाथ अपने भी बढें
उसके सहारे के लिए
याद में उनकी, किसी आँगन में ,
बीज रोपें जो शज़र बन के रहे
उसके फल खाके यूं बच्चे बोलें
माँ जी यूं ही ताजी हवा बन के रहे .
माँ की बरसी न फ़क़त
रस्म ओ राह बन के रहे ,
याद उनकी न फ़क़त
रस्म ओ राह बन के रहे .................
अब के दर से न tere
koi भूखा प्यासा गुज़रे
सब तेरे रहम ओ करम
बेबस ओ मुफलिसों पे ही गुज़रे
माँ सी ममता से हो भरा
तेरा अपना दामन
जेठ की तपती धूप में
भीकिसी मजलूम के तन
प्यार सावन सा झूम के
बरसे एक बे माँ का कोइ लाल अगर
तेरी ममता से हरा बन के रहे
माँ की बरसी न फ़क़तरस्म ओ राह बन के रहे
याद उनकी न फ़क़त रस्म ओ राह बन के रहे .

Wednesday, May 07, 2008

nai ghazal

छोड़ोगी मुझे मैं भी तुम्हें छोड़ जाऊंगा ,
तोड़ोगी मुझे मैं भी तुम्हें तोड़ जाऊंगा .
खामोशियों कि मौत गंवारा नहीं मुझे ,
शीशा हूँ टूटकर भी खनक छोड़ जाऊंगा .
गूंजेगी फिर वो देर तलक तेरे कान में ,
पल में गिरा तो ऐसी धनक छोड़ जाऊंगा .
बख्शोगी मुझको ग़म तो tadpogi उम्र भर ,
तेरे भी दिल में ऐसी कसक छोड़ जाऊँगा .
आंसू के समंदर में खुद डूबकर भी मैं .
दरिया के रुख को तेरी तरफ मोड़ जाऊंगा .
तुम पल में ढहा दोगी अगर रेत का महल ,
तेरी भी आँख में हलकी सी कुनक छोड़ जाऊंगा .
दिल अपना जला के बना जो दिलजला प्रदीप .
तेरे भी दिल में उसकी तपिश छोड़ जाऊंगा .

Sunday, April 06, 2008

कैसे तुम कविता लिक्खोगे ? संपादित

बातों में उसकी आकर्षण , रूप में है उसके आकर्षण .सोहनी सूरत , मोहनी मूरत , है आकर्षण ही आकर्षण .है आदर्श मुकम्मल नारी , लगती है दुनिया से न्यारी ,फुर्सत में हर अंग को गढ़कर, है धरा पे गई उतारी .बाल सजीले , नैन सजीले ,भरा हुआ है मादकपन,लचक चाल में हथिनी जैसी ,करती कोयल सा क्रंदन .सुन्दरता उसकी लगती है जैसे निर्मल बहती सरिता ,मिलते ही अहसास हुआ है लिक्खूँ उस पर कविता !
मेरे मन की थाह को पाकर ,बोली वो कुछ तैश में आकर ! सुन्दरता देखी है तुमने , अंतर्मन को कब देखा ?रूप निरखकर मोहित हो, गम के धन को कब देखा.?सागर भी दिलकश लगता है ,बाहर से गर देखो तो,अन्दर कितनी है गहराई , बिन डूबे किसने देखा ?मेरे भीतर छुपे हुए हैं ,गम के कई समंदर ,जो भोगा , जो कुछ झेला सब छुपा हुआ है अन्दर .जब तक गम की थाह न लोगे, तब तक बोलो क्या लिक्खोगे ?आधे-अधूरे अहसासों पर , कैसे तुम कविता लिक्खोगे ?
पहले मेरा हर हाल सुनो,दुःख में बीता हाल सुनो .जो बन के आंसू बहता रहा ,उस लहू का सारा हाल सुनो !
जो बनने और सँवरने को बचपन का खेल समझती थी उस बाल वधू के सपने कैसे , कलियों की तरह गए मसले .जिसमें मेरे अरमान जले वो आग हवस की कैसी थी ?गुड्डे गुडिया का खेल वो कब , कुछ पल में आफत बन बैठा ये खेल जिस्म का ऐसा जो मेरी जान की सांसत बन बैठा .जब सब कुछ मैंने खोया था वो रात न पूछो कैसी थी ?उस रात में सब कुछ खोकर भी हासिल मुझको कुछ भी न हुआ नैनों से नीर बहाकर भी ये चाक जिगर रफू न हुआ .मैं क्या थी और क्या बन बैठी, क्या पाकर कितना लुटा बैठी ?बेदिल से होती क्रीडा का , सब कुछ खोने की पीडा का . पहले सारा तुम हाल सुनो !आते ही मुझ पर कुछ उसने ,ऐसा रोब जमाया था मेरा तन मन उसका है ऐसा अहसास कराया था .एक बाज़ की भांति उसने फिर ,मुझे नोच-नोच कर खाया था बकरी और शेर के किस्से को ऐसे उसने समझाया था वो उसकी गरम-गरम साँसे बदबू और सडन भरी साँसे मेरी साँसों से टकराती थी .नन्ही चिडिया बिन पंखों के फिर उस जालिम के पंजों में बेबस सी छट पटाती थी !औरत और मर्द का ये रिश्ता अब तक न जो समझती थी ,माँ -बाप और भाई बहनों के रिश्ते वो फ़क़त समझती थी .लेकिन उस रात ने फिर मुझको कुछ ऐसा पाठ पढाया था जो अब तक मैंने सीखा था कुछ पल में हुआ पराया था उसे देख के मेरी सिहरन का डर में बढ़ती उस धड़कन का ,बिन फूल बने ही कुचलने का, वो पल पल चीख निकलने का , पहले सारा तुम हाल सुनो ! वो रात न जाने कैसी थी , खुशियों पर कालिख मल बैठी ,इक नन्हीं गुडिया कुछ पल में एक पूरी औरत बन बैठी .बच्ची से औरत होने में , कुछ पल में सब कुछ खोने में ,एक शेर की मांद में सोने में , उस सिसक सिसक कर रोने में ,कितने दुःख मैंने झेले हैं पहले सारा वो हाल सुनो ! फ़िर कहना तुम उस पीड़ा को ,कमसिन लड़की की क्रीडा को .दिन रात टपकते आंसू को .झर झर बहते उन झरनों को ,आँखों से छिनते सपनों को .बेगाने होते अपनों को शब्दों में कैसे ढालोगे ?तुम कविता कैसे लिक्खोगे ?हूँ ! तुम मुझपे कविता लिक्खोगे !

कैसे तुम कविता लिक्खोगे

बातों में उसकी आकर्षण , रूप में है उसके आकर्षण ।
सोहनी सूरत , मोहनी मूरत , है आकर्षण ही आकर्षण ।
है आदर्श मुकम्मल नारी , लगती है दुनिया से न्यारी ,
फुर्सत में हर अंग को गढ़कर, है धरा पे गई उतारी ।
बाल सजीले , नैन सजीले ,भरा हुआ है मादकपन,
लचक चाल में हथिनी जैसी ,करती कोयल सा क्रंदन ।
सुन्दरता उसकी लगती है जैसे निर्मल बहती सरिता ,
मिलते ही अहसास हुआ है लिक्खूँ उस पर कविता !
मेरे मन की थाह को पाकर ,बोली वो कुछ तैश में आकर !
सुन्दरता देखी है तुमने , अंतर्मन को कब देखा ?
रूप निरखकर मोहित हो, गम के धन को कब देखा।?
सागर भी दिलकश लगता है ,बाहर से गर देखो तो,
अन्दर कितनी है गहराई , बिन डूबे किसने देखा ?
मेरे भीतर छुपे हुए हैं ,गम के कई समंदर ,
जो भोगा , जो कुछ झेला सब छुपा हुआ है अन्दर ।
जब तक गम की थाह न लोगे, तब तक बोलो क्या लिक्खोगे ?
आधे-अधूरे अहसासों पर , कैसे तुम कविता लिक्खोगे ?
पहले मेरा हर हाल सुनो,दुःख में बीता हाल सुनो ।
जो बन के आंसू बहता रहा ,उस लहू का सारा हाल सुनो !
जो बनने और सँवरने को बचपन का खेल समझती थी
उस बाल वधू के सपने कैसे , कलियों की तरह गए मसले ।
जिसमें मेरे अरमान जले वो आग हवस की कैसी थी ?
गुड्डे गुडिया का खेल वो कब , कुछ पल में आफत बन बैठा
ये खेल जिस्म का ऐसा जो मेरी जान की सांसत बन बैठा ।
जब सब कुछ मैंने खोया था वो रात न पूछो कैसी थी ?
उस रात में सब कुछ खोकर भी हासिल मुझको कुछ भी न
हुआ नैनों से नीर बहाकर भी ये चाक जिगर रफू न हुआ ।
मैं क्या थी और क्या बन बैठी, क्या पाकर कितना लुटा बैठी ?
बेदिल से होती क्रीडा का , सब कुछ खोने की पीडा का । पहले सारा तुम हाल सुनो !
आते ही मुझ पर कुछ उसने ,ऐसा रोब जमाया था
मेरा तन मन उसका है ऐसा अहसास कराया था ।
एक बाज़ की भांति उसने फिर ,मुझे नोच-नोच कर खाया
था बकरी और शेर के किस्से को ऐसे उसने समझाया था
वो उसकी गरम-गरम साँसे बदबू और सडन भरी साँसे मेरी साँसों से टकराती थी ।
नन्ही चिडिया बिन पंखों के फिर उस जालिम के पंजों में बेबस सी छट पटाती थी !
औरत और मर्द का ये रिश्ता अब तक न जो समझती थी ,
माँ -बाप और भाई बहनों के रिश्ते वो फ़क़त समझती थी ।
लेकिन उस रात ने फिर मुझको कुछ ऐसा पाठ पढाया था
जो अब तक मैंने सीखा था कुछ पल में हुआ पराया था
उसे देख के मेरी सिहरन का दर में बढ़ती उस धड़कन का ,
बिन फूल बने ही कुचलने का, वो पल पल चीख निकलने का , पहले सारा तुम हाल सुनो !
वो रात न जाने कैसी थी , खुशियों पर कालिख मल बैठी ,
इक नन्हीं गुडिया कुछ पल में एक पूरी औरत बन बैठी ।
बच्ची से औरत होने में , कुछ पल में सब कुछ खोने में ,
एक शेर की मंद में सोने में , उस सिसक सिसक कर रोने में ,
कितने दुःख मैंने झेले हैं पहले सारा वो हाल सुनो !
फ़िर कहना तुम उस पीड़ा को ,कमसिन लड़की की क्रीडा को ।
दिन रात टपकते आंसू को ।झर झर बहते उन झरनों को ,
आँखों से छिनते सपनों को ।बेगाने होते अपनों को शब्दों में कैसे ढालोगे ?
तुम कविता कैसे लिक्खोगे ?
हूँ ! तुम मुझपे कविता लिक्खोगे !

कैसे तुम कविता लिक्खोगे

जो बनने और सँवरने को बचपन का खेल समझती थी
उस बाल वधू के सपने कैसे , कलियों की तरह गए मसले ।
जिसमें मेरे अरमान जले वो आग हवस की कैसी थी ?
गुड्डे गुडिया का खेल वो कब , कुछ पल में आफत बन बैठा
ये खेल जिस्म का ऐसा जो मेरी जान की सांसत बन बैठा ।
जब सब कुछ मैंने खोया था वो रात न पूछो कैसी थी ?
उस रात में सब कुछ खोकर भी हासिल मुझको कुछ भी न हुआ
नैनों से नीर बहाकर भी ये चाक जिगर रफू न हुआ ।
मैं क्या थी और क्या बन बैठी, क्या पाकर कितना लुटा बैठी ?
बेदिल से होती क्रीडा का , सब कुछ खोने की पीडा का । पहले सारा तुम हाल सुनो !
आते ही मुझ पर कुछ उसने ,ऐसा रोब जमाया था
मेरा तन मन उसका है ऐसा अहसास कराया था ।
एक बाज़ की भांति उसने फिर ,मुझे नोच-नोच कर खाया था
बकरी और शेर के किस्से को ऐसे उसने समझाया था
वो उसकी गरम-गरम साँसे बदबू और सडन भरी साँसे मेरी साँसों से टकराती थी ।
नन्ही चिडिया बिन पंखों के फिर उस जालिम के पंजों में बेबस सी छट पटाती थी !
औरत और मर्द का ये रिश्ता अब तक न जो समझती थी ,
माँ -बाप और भाई बहनों के रिश्ते वो फ़क़त समझती थी ।
लेकिन उस रात ने फिर मुझको कुछ ऐसा पाठ पढाया था
जो अब तक मैंने सीखा था कुछ पल में हुआ पराया था
उसे देख के मेरी सिहरन का दर में बढ़ती उस धड़कन का ,
बिन फूल बने ही कुचलने का, वो पल पल चीख निकलने का , पहले सारा तुम हाल सुनो !
वो रात न जाने कैसी थी , खुशियों पर कालिख मल बैठी ,
इक नन्हीं गुडिया कुछ पल में एक पूरी औरत बन बैठी ।
बच्ची से औरत होने में , कुछ पल में सब कुछ खोने में ,
एक शेर की मंद में सोने में , उस सिसक सिसक कर रोने में ,
कितने दुःख मैंने झेले हैं पहले सारा वो हाल सुनो !
फ़िर कहना तुम उस पीड़ा को ,
कमसिन लड़की कि क्रीडा को ,
दिन रात टपकते आँसू को,
झर-झर बहते उन झरनों को ,
आंखों से छिन्न ते सपनो को
बेगाने होते अपनों को
शब्दों में कैसे लिक्खोगे
कैसे तुम कविता लिक्खोगे ?
हूँ , तुम मुझ पे कविता लिक्खोगे !

Saturday, March 15, 2008

क्यों और किसलिए ?

क्यों और किसलिए ?
क्यों और किसलिए ?
उसे तोहफा दिया तो ,
वो बेहद हैरान सी होकर बोली ,
इतने रूपये और तुम !
भला क्यों और किसलिए ?
क्या तुम्हारी धड़कन नहीं बढ़ी ?
ये तुम्हारे हाथ से छूटे कैसे ?
जो शख्स तीन रूपये बचाने के लिए ,
चार किलोमीटर पैदल घिसटता है .
पैसे की मोहब्बत में ,
बहन के घर जाने से भी बचता है ,
वो मुझे तीन हजार कैसे दे सकता है ?

मैं यही सोचकर हैरान हूँ !
बेशक तुम सही कहती हो ,
बेशक मैं कंजूस सही !
या कहो तो मख्खिचूस सही !

बेवजह क्या बा वजह भी खर्चने से डरता हूँ !
शायद इसीलिए थोडा बचाने के लिए मीलों चलता हूँ .
लेकिन मेरे सीने में इक दिल धड़कता है ,
उसमे मेरे अरमान व अहसासात का मसीहा बसता है .
वहाँ मेरी भावनाओं की लहर मचलती हैं .
एक पावन सी सूरत बन के शमां जलती है
धन तो क्या ये तन और मन भी उसका है

उसकी खातिर मेरा सब कुछ निछावर है

एक मेरी ज़रूरत है और दूसरी श्रद्धा .
और इन दोनों में इतना अंतर है ,
कि ज़रूरत को कर सकता हूँ सीमित ,
और श्रद्धा तो है असीम,अपार अपरिमित !
इसलिए .......
एक से बचाई दौलत सारी ,
दूसरी पर कुर्बान है !
और सच कहूं तो ,
यही इस माटी का
सच्चा बलिदान है !
तुम मेरी श्रद्धा हो और वो ज़रूरत !
और मेरे लिए श्रद्धा ज़रूरत से महान है !

Friday, March 07, 2008

होली

फ़िर फागुन आया है यारों !
फ़िर आई है होली ।
भूल के सारे भेदभाव को
खेलेंगे हम होली ।
गोरा हो या काला कोई
सब को मलें गुलाल ,
रंग भेद मिट जाएं
सारे कर दें लालमलाल
सबको गले लगाके
खेलेंगे हम होली ।
सदियों पहले रूठ गई जो
भीड़ भाड़ में छूट गई जो
शायद अब के फागुन में
वो भी आए खोली में
अपने रंग में रंगने उसको
खेलेंगे हम होली।
अब तक जिससे कभू ना बोले
प्यार का राज कभू ना खोले
म्हारे घर के आगे से जब ,
गुजरेगी वो हौले-हौले
मारेंगे उसपे पिचकारी
खेलेंगे हम होली ।
सारी नफरत मिटेंगी अब के
दुश्मन भी गल मिलेंगे अब के ।
छोट बडाई सभी मिटेगी ,
सब तकरार मिटेंगे अब के ।
सब को प्रेम के रंग में रंगने
खेलेंगे हम होली

वेश्या

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
वेश्या !
ऐसी औरत रेल की पटरी की तरह होती है ,
जो ताउम्र भीड़ में रहकर भी तनहा होती है ,
गर्मी और सर्दी , उसके जीवन में दो ही मौसम होते हैं ।
गर्मी आती है to वो अपनी टाँगे फैला लेती है ,
और सर्दी आती है तोअपनी टाँगे सिकोड़ लेती है ।
लोग उसकी ज़िंदगी में रेल की तरह आते हैं ,
जो उसको बेसाख्ता रोंदते हुए बढ़ जाते हैं ।
जब उनका जी करे वो इसको झिन्झोड़ते हैं ,
और जब इसका मन चाहे तो ये ख़ुद को झिंझोड़ लेती है ।
ऐसी औरत रेल की पटरी की तरह होती है !

वेश्या !

वेश्या !
ऐसी औरत रेल की पटरी की तरह होती है ,
जो ताउम्र भीड़ में रहकर भी तन्हा होती है ,
गर्मी और सर्दी ,
उसके जीवन में दो ही मौसम होते हैं ।
गर्मी आती है तो वो अपनी टाँगे फैला लेती है ,
और सर्दी आती है तोअपनी टाँगे सिकोड़ लेती है ।
लोग उसकी ज़िंदगी में रेल की तरह आते हैं ,
जो उसको बेसाख्ता रोंदते हुए बढ़ जाते हैं ।
जब उनका जी करे वो इसको झिन्झोड़ते हैं ,
और जब इसका मन चाहे तो ये ख़ुद को झिंझोड़ लेती है ।
ऐसी औरत रेल की पटरी की तरह होती है !
ऐसी औरत रेल की पटरी की तरह होती है !

दोस्तों अपनी नई कविता पर आपकी बेबाक टिपण्णी का मुझे इंतज़ार रहेगा !

प्रदीप कुमार baliyan

Tuesday, March 04, 2008

एक घर

दो जहाँ की सारी खुशियाँ छोड़ दूँ ,
पल भर मुस्कान ये मिल जाए गर ।
ईंट -पत्थर के मकां सब छोड़ दूँ ,
एक घर जंगल main भी मिल जाए गर .

हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे - अन्तिम

हाँ ! हाँ ! हाँ मैं तुम पर कविता लिखूंगा ।
माना तुमने है ज़हर पिया और विष पीकर भी ज़िंदा हो ।
बेशक धोती हो पाप बहुत लेकिन फ़िर भी तुम गंगा हो ।
ये दर्द जिन्होंने बख्शे हैं ,तुम उनकी चिंता करती हो ।
जो ग़लत किया है औरों ने , तुम उसपे क्यों शर्मिंदा हो ।
उस कीचड मैं हो धंसी हुई दुनिया को छोटी मान रही ।
लेकिन कुछ अब भी है बाकी तुम इसीलिए तो जिंदा हो ।
ये बेशक रात अँधेरी हो , ना हाथ को हाथ सूझता हो ।
याद करो उस ताकत को , तुम जिसका एक पुलिंदा हो ।
तुम आंधी हो , एक आफत हो , तुम चंडी हो , तुम दुर्गा हो ।
तेरा दुःख नारी का दुःख है , है इसीलिए इतना भारी ।
कहने को दो घर की मालिक ,देहरी पे ही रहे बेचारी ।
आते जाते ठोकर मारे , दुखिया है किस्मत की मारी ।
लेकिन तुम जीवन सरिता हो , मैं तेरे गम में रहता हूँ ।
सारी पीड़ा , सारे गम , मेरे हमदम मुझको दे दो ।
खुशियों से भर लो दामन , अपने सब गम मुझको दे दो ।
तेरी पीड़ा , तेरे गम , तेरी सिसकी ,तेरी आहें ।
उन सबकी खातिर इस दिल में हैं शब्द बहुत ।
लेकिन उन शब्दों को जब में कागज़ पर लिखने लगता हूँ
तेरे आँसू के दरिया में ,हर्फ़ सभी बह जाते हैं
लेकिन वो सारे आंसू , मुझको बस अपने लगते हैं
तुम ही मेरी कविता हो , मुझसे ये कहने लगते हैं .

हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे -९

गम की आग में जलकर जच्चा , रो-रो कर बेहाल हुई फ़िर ।
भूख प्यास सब हो गई गायब , सूखा-सा कंकाल हुई फ़िर ।
जिसने मुझको था गम बख्शा , मजबूरी में उसे पुकारा ।
मुझे बचा लो मेरे साजन ,मुझे संभालो मेरे साजन ।
उस जालिम के दिल में जाने , थोडी सी दया चली आई ।
बस मेरा इलाज करा कर ,मुझ दुखिया की जान बचाई ।
माँ जैसी उस सास को भी , मेरे गम का अहसास हुआ ।
बच्ची को हम कहीं ना देंगे अपनेपन से ये उसने कहा।
उसके मुश्ताक्बिल की चिंता , मेरे जर्जर यौवन को
तुम शब्दों में क्या लिखोगे ?
कैसे तुम कविता लिखोगे ?
हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे ...

हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे - 8

त्योहारों की दस्तक से ही , होती है मुझको घबराहट ।
मदिरा के लंबे दौर के संग , वो जुएबाजी की टकराहट ।
इस घर मैं त्योहारों के , देखे मैंने दस्तूर नए ।
वो पैमानों के दौर नए , वो बाजी के दौर नए ।
इधर छलकती आँखें हैं , और उधर छलकते पैमाने ।
है इधर तमन्ना मन्दिर की , वो बना रहे हैं मैखाने .
जब सारी दुनिया हंसती है हम घर मैं घुट ते रहते हैं ।
वो कहते हैं खुशियाँ उनको , हम दिन रात बिलखते रहते हैं ।
खुशियों से घबराहट को ,रिश्तों की टकराहट को ।
नीर बहाती आंखों को , नज़रों में छुपी हिकारत को ।
जो बीत गए उन लम्हों को ,जो गुज़र रही उस लानत को ।
तिल-तिल कर इस जलने को ,मुझ दुखिया की इस हालत को ,
तुम शब्दों में क्या लिखोगे ?तुम क्या मुझपे कविता लिखोगे ?
हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे

हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे -8

बच्ची को जनने की पीड़ा , कमसिन माँ बनने की पीड़ा ।

बचपन को खोने की पीड़ा ,को बोलो तुम क्या लिखोगे ?

हूँ तुम मुझपे कविता लिखोगे !

कोख मेरी बसने से पहले ,वो उसका सौदा कर बैठा ।

बच्ची या बच्चा हो कुछ भी ,देने का वादा कर बैठा ।

मेरे गम से मूँद के आँखें ,औरों का गम उसको भाया ।

कोख मेरी और वादा उसका , जी हाँ मैंने नहीं निभाया ।

यूँ तो मैं सब कुछ सह लेती , पर बच्ची देना ना भाया ।

कुछ पाने की खुशियाँ और सब कुछ खोने की पीड़ा

को शब्दों मैं क्या लिखोगे ? कैसे तुम कविता लिखोगे ।

हूँ तुम मुझपे कविता लिखोगे !

हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे - 7

जाने कोख भरी फ़िर कैसे , सूनी सेज सजी हो जैसे ।
पतझड़ के उस जीवन में, नई बहारें आई जैसे ।
लेकिन मेरा भाग है खोटा, खुशी भी पल में खो जाती है ।
इक खुशी के पीछे एक दुःख , देर तलक अँखियाँ रोती हैं ।
जो नही जन्मा अब तक जग में , उसे दान में दे आया वो ।
खुशियों की आहट से पहले , खुशी दान में दे आया वो ।
जब वो नन्हीं घर में आई , उसे देखकर में मुसकाई ।
पेर ये खुशी भी पल भर की थी,पल में अँखियाँ फ़िर भर आई ।
वो जिस घर जाने वाली थी ,वहाँ भी एक शैतान था रहता ।
वो तो इससे भी बढ़ कर था ,नशा , ऐब सब में बढ़कर था ।
क्या होगा नन्ही सी जाँ का , क्या होगा नन्ही -सी माँ का ।
यही सोचकर रोती रहती, लहू टपकता था आंखों से ।
मेरे अब , बच्ची के कल की चिंता को शब्दों में ...
कैसे लिखोगे ?
कैसे तुम कविता लिखोगे ? हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे

हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे - 6

सूनी अंधियारी रातों में गुम हुई वो नन्ही गुडिया ।
भूल गई सब उछल-कूद अब ,क़ैद हुई वो छोटी चिडिया ।
सारी खाहिश दूर हुई हैं सपने चकना चूर हुए हैं ।
रंग नही कुछ इस जीवन में ,बेरंग है ये सारी दुनिया ।
मतलब की ये सारी दुनिया ,लगती है बेगानी दुनिया ।
अपना नही नज़र आता है ,सपना भी अब गैर लगे है ।
छोटी सी चिडिया को अब ,सारे जग से बैर लगे है ।
दिल के इक कोने में लेकिन , इक हसरत है अब भी बाकी ।
दर्द-ओ -गम के इस आलम में ,अब भी है कुछ ज़िंदा बाकी ।
तोड़ के इन सारे पिजरों को ,दूर गगन में मैं उड़ जाऊं ।
सब कुछ हो रंगीन वहाँ पर , इन्द्रधनुष पे मैं इठलाऊँ ।
टूटे सपने , छूटे अपने ,जिंदा हसरत , रंग की चाहत
को शब्दों मेंक्या लिखोगे? हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे

हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे -5

रोज वो पीकर घर में आता ,जाने क्या-क्या करके आता ।

वो बदबू मैं शब भर सहती , तकिये पे मुंह धर कर रोती।

गीले तकिये से ये कहती ,काश ! मुझे वो अपना कहता .

बांहों में वो अपनी भर के , मुझको अपना सपना कहता .

रस्म एक करके वो पूरी ,मुंह उधर करके सो रहता .

दो जिस्मों के बीच में पसरी ,मीलों लम्बी रही वो दूरी .

वो बदबू वो सूनी रातें , सूनी बाँहें , सूने सपने .

दो जिस्मों के बीच वो रिश्ता , वो आँखों से लहू जो रिसता.

उन सबको तुम क्या लिखोगे ? हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे !

हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे -3

फ़िर अचानक ...
पन्द्रह बरस की नन्ही गुडिया ,
पल भर में बन गई बहुरिया ।
शादी की वो पहली रात ,
हाँ हाँ वही सुहाग की रात ।
शादी की उस पहली रात ,
उसकी मर्दों वाली बात ।
बोला वो फख्र के साथ ,
सोया है किस-किस के साथ ।
उसकी गन्दी जूठन मैंने ,
कैसे चखी सारी रात ।
वो सिसकी , वो दर्द , वो आहें ,
शब्दों में कैसे लिखोगे ?
कैसे तुम कविता लिखोगे ?
हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे

४-
कितनी रातें जग कर काटी ,
कितनी रातें रोकर काटी ।
मैंने तनहा हो कर काटी,
अपने सपने खोकर काटी ।
इंतज़ार रहता उस पल का ,
कब वो कहेगा मुझको अपना ।
क्या होता है प्यार पति का ,
आया ऐसा कभी ना सपना ।
सपना आख़िर कैसे आता ,
नींद नही थी जब आंखों में ।
दर्द भरा था मेरे दिल में ,
दर्द छलकता था आंखों में ।
उस इंतज़ार , उस बेकरार , उस दर्द ओ गम को ।
शब्दों में कैसे ढालो गे ? कैसे तुम कविता लिखोगे ?
हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे

हूँ ! मुझपे कविता लिखोगे -2

सब जब मुझको सजा रहे थे
गहने कपड़े पराह रहे थे ।
अच्छा है कुछ होने वाला ,
कुछ लक्षण ये बता रहे थे ।
मैं भोली नादाँ ना समझी ,
आफत की पहचान ना समझी ।
कि अंधड़ ओ तूफान से पहले ,
।थोडी सी बूँदें आती हैं ।
अनहोनी होने से पहले ,
हमसे कुछ कहना चाहती हैं ।
आने वाले गम की आहट,
खुशियों के खोने की सासत ,
को शब्दों में क्या लिखोगे ?
हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे

हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे 1

अल्हड़पन को छोड़ के इक्दम मैं इस घर मैं आई ,
खेल सभी छूटे बचपन के छूटे सारे बन्धु भाई ,
छूटा वो फ़िर उधम मचाना फुदक-फुदक कर आना-जाना ,
बेमतलब वो शोर मचाना इसे सताना उसे सताना ,
लड़कों जैसे दिन भर रहना जिम्मेदारी ना बाबा ना ।
खेल तमाशे छुपा छुपी के उछलकूद वो अल्हड़पन की
शब्दों में कैसे ढालो गे ? सभी शरारत वो बचपन की !
हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे !

Monday, March 03, 2008

एक अधूरी बहस

उसने मुझसे कहा !
क्यों है सोया हुआ ? कहाँ खोया हुआ ?
क्यों तू मायूस है ? ये तुझे क्या हुआ ?
खोल आँखें ज़रा , यूं न नज़रें चुरा ,
देख ये ज़िन्दगी कितनी रंगीन है ....
मैंने उस से कहा !
न मैं खोया हुआ , ना हूँ सोया हुआ ,
ज़िन्दगी के ये रंग , कितने रंग हीन हैं ,
दुनिया ग़मगीन है इसलिए हूँ उदास ,
और में हूँ मायूस ये मुझे है हुआ .
उसने मुझसे कहा !
ज़िन्दगी है पतंग , जाने कितने हैं रंग ,
जैसे तितली कोई , रंग बिरंगी सी है ।
ज़िन्दगी है ये क्या , कोई इन्द्र धनुष ,
हर तरफ इसमें रंगों की खुशबू सी है .
मैंने उस से कहा !कागजी सारे रंग ,
ना ख़ुशी ना उमंग ,ज़िन्दगी कागजी जैसे कागज़ की नाव ।
आये गम की नदी तो डूब जाती है ये,
मीलों लंबा सफर , ना कोई ठहराव ।
उसने मुझसे कहा !ज़िन्दगी है सफर ,
हंस के आगे तू बढ़ ,आगे मंजिल तेरी हौसले से तू चढ़ ।
थक के यूं ना तू बैठ ,इन दुखों के उधर है सुखों का पहाड़ .
ज़िन्दगी है सजा ...नहीं ये है मज़ा ।
ज़िन्दगी राग है ...ये कोई आग है ।
ज़िन्दगी शोज़ है ...ये तो बस शोग है ।
ज़िन्दगी साज़ है ....ये तो खटराग है ।
ज़िन्दगी है कली....ये है अंधी गली ।
इक सहेली है ये ...जी पहेली है ये ।
बढ़ के थाम इसका हाथ ...ऐसी अनजान का कौन ठामेगा हाथ ।
ज़िन्दगी मां की गोद ....ये है बूढे का बोझ ।
ज़िन्दगी है वफ़ा ....जी नहीं बेवफा ।
उम्र भर दे ये साथ ...छोडे पल में ये साथ ।
उसने मुझसे कहा !सुन रे
नादान तू !
ज़िन्दगी आइना ,तेरा ही अक्श तो इसमें ....आता नज़र ।ये तुझे ना खबर ।ज़िन्दगी जीनी गर इस से समझौता कर . इस से समझौता कर . इस से समझौता कर !

उनकी तारीफ

उठती नहीं नज़र तेरे हुस्न की तरफ ,
तारीफ क्या करूं उस माहताब की ।
सारे जहाँ का नूर तुझी में समां गया,
तारीफ क्या करूं उस आफताब की ।
मेरे लिए हसीं हो सारे जहान से ,
तारीफ किस तरह करूं कहिये जनाब की ।
तुम सर से पाँव तक किसी जन्नत का खवाब हो ,
तारीफ क्या करूं हुस्न-ए- लाजवाब की ।
परियों के देश से कोई उतरी है अप्सरा ,
हर अंग से उट्ठे है किरण महताब की ।
चुन्धिया गई नज़र उठते ही जब प्रदीप
उठेंगी किस तरह ये जानिब जनाब की .

तुम्हारे जन्म दिन पर

तुम्हारे जन्म दिन पर ,
चाँद ,सूरज और सितारे ,
मैं तुमको दे नहीं सकता ।
तुम्हारे जन्म दिन पर ,
चमन के फूल , खुशबू और नजारे ,
मैं तुमको दे नहीं सकता ।
ये सब कुदरत की हैं नेमत ,
ज़माने भर की खातिर हैं ।
न उनको पाना चाहोगी ,
जो ज़माने भर की खातिर हैं ,
सभी की छीन कर दौलत ,
मैं तुमको दे नहीं सकता ।
तुम्हारे जन्म दिन
पर किसी की छीन कर खुशियाँ
मैं तुमको दे नहीं सकता ।
पर ..............
मेरी खुशियाँ , मेरे सपने ,
मेरे अरमान सारे हैं तुम्हारे ,
मेरा ये दिल जिगर और जान,
सभी कुछ हैं तुम्हारे।
मेरा हर शब्द , हर शेर और कविता
मेरी तहरीर सारी है तुम्हारी ।
मेरा माजी, मेरा हासिल ,
मेरी किस्मत ,सभी कुछ हैं तुम्हारी ।
मेरी हर चीज पर लेकिन ,
है पूरा हक तुम्हारा ।
तुम्हारे वास्ते हूँ मैं

मेरा सब कुछ तुम्हारा ।
तुम्हारे जन्म दिन पर
जो मेरा है वही मैं देना चाहता हूँ ,
मेरी खुशियाँ मिले तुमको ये कहना चाहता हूँ ।
रहो तुम उम्र भर खुश ,
मेरी खुशियाँ तुम्हारी हों
वो सारे गम मिले
मुझको
जो तेरी खुशियों पे भारी हों
तुम्हारे जन्म दिन
पर
बस दुआ ये देना चाहता हूँ
मैं तेरे आंसू के बदले में ,खुशियाँ

सभी देना चाहता हूँ ।

Friday, February 29, 2008

पहली मुलाकात

पहले-पहल जो उनसे मिले
तो हाल बुरा था अपना ।
पाँव न पड़ते थे धरती पर
बस हाल बुरा था अपना ।
डरते-डरते दी जब दस्तक
दरवाजे पे की थी ठक-ठक ।
फ़िर भीतर कुछ हुई थी हलचल
इधर मची थी दिल में हलचल
खट से उसने कुण्डी खोली
दिल में जैसे लगी थी गोली
बनी हकीकत हुई रूबरू
मेरी हमदम मेरी माहरू
हम जिसको समझे थे सपना
वो ख़याल बुरा था अपना
पहले -पहल जो उनसे मिले
तो हाल बुरा था अपना .
उनसे मिलने की बेताबी
मुश्किल से वो हुए थे राज़ी
सोचा था जब मिलेंगे उनसे
दिल का हाल कहेंगे उनसे
अन्दर से ही देकर पुस्तक
बाहर से कर देंगी रुखसत
लेकिन हम न टलेंगे ऐसे
हाथ पकड़ लेंगे हम झट से
ऐसे होगा वैसे होगा
वो कुछ घबराएंगे हमसे
कुछ हम शर्माएंगे उनसे
मगर हुआ न कुछ भी ऐसा
सब कुछ लगा हादसे जैसा
सचमुच में जब हुआ सामना
हाल बुरा था अपना
पहले -पहल जो उनसे मिले तो .........
बोले वो fक अन्दर आओ
दिल कहता था रुखसत पाओ
आँख नहीं उठती थी मेरी
सांस तेज़ चलती थी मेरी
पाँव नहीं बढ़ते थे आगे
माथे पे था आया पसीना
तेज़ -तेज़ धडके था सीना
डरते-डरते पाँव बढाये
कुछ शरमाये कुछ घबराए
जो कुछ भी कहना था उनसे
वैसा कुछ भी कह न पाए
प्यार नहीं था बस की बात
दिल बदन कुछ न था साथ
उस दिन की मत पूछो कुछ भी
वो काल बुरा था अपना . हाल बुरा था ......
शायद उनके दिल की हालत

जुदा नहीं थी हमसे
उखडी सी लगती थी
लेकिन खफा नहीं थी हमसे .
कहने को हम दो थे घर में
लेकिन जैसे सौ थे घर में
पास खडे थे फिर भी दूरी
कुछ न कहने की मजबूरी
दिल से दिल की थी बस बातें
वरना पसरे थे सन्नाटे !
हमको उनसे ,उनको हमसे
कहना था जाने कितना
कुछ मत पूछो खामोशी का
साल बुरा था अपना
पहले-पहल जो उनसे ...... हाल बुरा था अपना ..
फिर बोली वो करके हिम्मत

क्या पानी ले आऊं ?
हाँ ! बस मेरे मुंह से निकला
कैसे उसे छुपाऊँ ?
फिर पानी लेने ke बहाने ,
हाथ छू गया अपना
फागुन की मीठी सर्दी में
माह जेठ था अपना
जाने किसके अंदेशे में
कांप रहे थे हाथ
दिल जाते ही बदन भी अपना
छोड़ गया था साथ
सहना मुश्किल हुआ तो ,
हमने छोडा प्रेम का साथ
अच्छा घर है ! ऐसा कहकर
बदली हमने बात .
खामोशी के लब खुलते ही
प्यार कहीं काफूर हो गया
मिलने हम गए थे उनसे
वापस आये घर से मिलके
जल्दी-जल्दी रुखसत होकर
जाने कब हम आये बाहर
होश पड़े तो हमने जाना
टूट गया है सपना .
पहले-पहल जो उनसे मिले तो
हाल बुरा था अपना .. हाल बुरा था अपना ..

Tuesday, February 26, 2008

जाने वो कौन सी दुनिया में बैठे हैं ,
रूबरू मेरे मगर और कहीं बैठे हैं ।
जाने किसलिए बुत वो बने बैठे हैं ,
कुछ तो है जो तने बैठे हैं ।
उठ रहे हैं दिल में तूफ़ान कई ,
रूबरू मेरे शांत भले बैठे हैं ।
कुछ तो आएगा सारे सवालों का जवाब ,
बस यही सोच के हम भी यहीं बैठे हैं ।
कुछ तो है जो उनके होटों पे लरजना चाहे ,
बस यही सोच के हम भी यहीं बैठे हैं ।
एक मुद्दत से दिल जलाकर प्रदीप
हम भी हाले दिल सुनने के लिए बैठे हैं .

नए दोस्त के लिए

jआने वो कौन सी दुनिया में बैठे हैं ,
रूबरू मेरे मगर और कहीं बैठे हैं .
जाने किसलिए बुत वो बने बैठे हैं ,
कुछ तो है जो इतने ताने बैठे हैं ।
उठ रहे हैं दिल में तूफ़ान कई ,
रूबरू मेरे शांत भले बैठे हैं ।
कुछ तो आएगा सारे सवालों का जवाब ,
बस यही सोच के हम भी यहीं बैठे हैं ।
कुछ तो है जो उनके होटों पे लरजना चाहे ,
बस यही सोच के हम भी यहीं बैठे हैं ।
एक मुद्दत से दिल जलाकर प्रदीप
हम भी हाले दिल सुनने के लिए बैठे हैं .

Saturday, February 23, 2008

haale dil

रस्मन हँसी के पीछे कुछ छुपा ज़रूर है ,
तेरे भी दिल में शूल सा कुछ चुभा ज़रूर है .

दुनिया में गम-ओ-मसर्रत रहते हैं साथ साथ ,
खट्टा है कुछ यहाँ तो मीठा ज़रूर है .

देता है कौन साथ दुनिया में उम्र भर ,
मिलता है कोई गर तो बिछ्ड़ता ज़रूर है .

घर में कई दिनों से पसरा हुआ सुकून ,
कुछ न कुछ तो रिश्तों में टूटा ज़रूर है.

जाते हुए सफर में मुड़कर भी देख लो ,
सामान कुछ न कुछ तो छूटा ज़रूर है .

क्या फर्क जो मय के प्याले नहीं पिए ,
आँखों से पीने पे नशा चढ़ता ज़रूर है .

माना बहुत जहान में तंग रहा प्रदीप ,
कोई न कोई तुझसे भी रूठा ज़रूर है .

2 shair

दर्द भरा है जितना दिल में उतनी ही है प्रेम कहानी,
उनके चर्चे जब होते हैं बहता है आँखों से पानी .
सबकी सुनकर अपनी करना नाम इसी का बुद्धिमानी,
क्यों इसकी परवाह करें ये दुनिया तो है इक दीवानी .
दुनिया यारों है दीवानी ............

dost

स्याह रात में जो बन के शमां जलती है ,
वो हादसों में भी मेरे साथ साथ चलती है .
वो मेरी दोस्त hamnazar हमसफ़र हमदम ,
उसे ही देखकर ये दिल की सांस चलती है .

Friday, February 22, 2008

tum hoti to aisaa hota ....

तुम होती तो ..................
तुम होती तो ऐसा होता , पास कोई तुम जैसा होता,
रात भी होती मेरी रात सी ,दिन मेरा दिन जैसा होता .
तुम होती तो ..................

तेरे बिन दिल सूना सूना , ज्यों बच्चे बिन कोई खिलौना ,
कुछ तो जग में अपना होता, घर मेरा घर जैसा होता .
तुम होती तो ...
सब ना मुझे दीवाना कहते ,पगला ना मस्ताना कहते ,
तेरे ख़्याल में डूबा रहता , याद में तेरी खोया होता .
तुम होती तो ..............
खामोशी ना मुझको खलती , तन्हाई ना मुझको डस्ती,
परछाई की भांति हर पल साथ तुम्हे मैं अपने रखता .
तुम होती तो ......
दिन भर काम मैं खोया रहता ,तन मन थकन से टूटा रहता ,
सांझ ढले जब घर मैं आता , तुझे देखकर चेहरा खिलता .
तुम होती तो ............

.

2 shair

चाँद लम्हों के लिए हमसे रिश्ता जोड़कर ,
जा रहे हैं अब वो देखो हमसे नाता तोड़कर .
उम्र भर तक साथ देने का किया वादा मगर ,
इक जरा सी बात पर जा रहे हैं छोड़कर .

2 ghazal

1-
मैं जिस मकान मैं रहता हूँ उसे घर नहीं कहते ,
ईंट पत्थर की दीवारों को कभी घर नहीं कहते .
चाँद रिश्तों को निभाने के लिए लाजिम हैं दो चार शख्स ,
बिन रिश्तों के मकान को कभी घर नहीं कहते .
ईंट पत्थर के बियांबान जंगल हैं हमारे ये शहर ,
मकान काफी हैं यहाँ लेकिन कहीं घर नहीं रहते .
हो सकता है कि आखिर के सिवा आगाज़ हो ये ,
हलके से धुंधलके को सदा सहर नहीं कहते .
2-
चुपके चुपके सबसे छुपके कोई मुझसे कहता है,
मुश्किल में तू दिल की सुनना कोई मुझसे कहता है.
भूल ना जाना सारे रिश्ते , बेरिश्तों के जंगल में ,
दिल का रिश्ता सबसे प्यारा कोई मुझसे कहता है .

vivah yaani shadi

विवाह !
समझौता, तकलीफ, तनाव , तशनगी.
तंगदिली, तंगहाली ,झंझट
और ज़िम्मेदारी की खिचडी का
नाम -विवाह है !
ये वो शमा है,
जिस पर हर मर्द ,
भँवरे की भांति
स्वाह है !

new gazal

अब के बहार ऐसे कई काम कर गई ,
इल्जाम झूठे देके बदनाम कर गई .
तेरा कोई कसूर है न मेरा कोई कसूर ,
दोनों की गलतफ़हमी अपना काम कर गई .
उनको किसी कदर भी समझा नहीं सका ,
मेरी नादानी मुझे नाकाम कर गई /