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Thursday, August 28, 2008

ग़ज़ल

दर्द आँखों में सिमट आया है ,
जाने कौन मुझे याद आया है ।
किस कदर ज़िन्दगी हुई तन्हाँ ,
हमसफ़र है न कोई साया है ।
कुछ तो मेरी खता रही होगी ,
उसने मुझको अगर भुलाया है।
जब बातें नहीं कोई उनसे ,
अपना साया हुआ पराया है।
उम्र भर कौन साथ देता है,
दिल को ऐसे ही अब मनाया है ।
जाने किसकी तलाश में प्रदीप ,
तूने अपना ही दिल जलाया है .

Sunday, August 17, 2008

ग़ज़ल

ठोकरें खाता है यां इंसान रोज़,
यूं दुखी रहता है यां इंसान रोज़ ।
आ गया तो खूब कर लो आ भगत ,
अब कहाँ आता है घर मेहमान रोज़ ।
मुद्दत हुई सीधी नहीं की बातचीत ,
पर खयालों में बहस होती है रोज़ ।
देखी हैं मैंने हसीनाएँ बहुत पर ,
आपमें कुछ और ही देखा है शोज़ ।
उड़ते फिरना आज़ाद पंछी की तरह ,
छोडो भी अब कहाँ है ऐसी मौज ।
हम भी सजधज कर चले बहना के घर ,
बाद मुद्दत के है आई भईया दौज ।
माँ की ममता अब हुई है खाब इक ,
जाने किस नफरत में जीते हैं अब रोज़ ।
मौत भी तो हो गई है खाब अब ,
ज़िन्दगी का ढ़ो रहा हूँ कब से बोझ ।
अपने दिल की कुछ नहीं कहता है वो ,
इक शिकन माथे पे बढ़ जाती है रोज़ ।
जाने ये कैसे गृहस्थी है प्रदीप ,
नित नई सी नोंक झौक रोज़ रोज़ ।