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Monday, July 28, 2008

ग़ज़ल

ठोकरें खाता है यां इंसान रोज़,
यूं दुखी रहता है यां इंसान रोज़ ।
आ गया तो खूब कर लो आव भगत ,
अब कहाँ आता है घर मेहमान रोज़ ।
मुद्दत ही सीधी नहीं की बातचीत ,
पर खयालों में बहस होती है रोज़ ।
देखी हैं मैंने हसीनाएँ बहुत पर ,
आपमें कुछ और हाय देखा है शोज़ ।
उड़ते फिरना आज़ाद पंछी की तरह ,
छोडो भी अब कहाँ है ऐसी मौज ।
हम भी सजधज कर चले बहना के घर ,
बाद मुद्दत के है आये भईया दौज ।
मान की ममता अब ही है खाब इक ,
जाने किस नफरत में जीते हैं अब रोज़ ।
मौत भी तो हो गी है खाब अब ,
ज़िन्दगी का धो रहा हूँ कब से बोझ ।
अपने दिल की कुछ नहीं कहता है वो ,
इक शिकन माथे पे बढ़ जाती है रोज़ ।
जाने ये कैसे गृहस्थी है प्रदीप ,
नित नई सी नोंक झौक रोज़ रोज़ .

ग़ज़ल

आदमी कितना यहाँ मज़बूर है ,
रिश्तों की ज़ंजीर में मज़बूर है ।
आदमी कितना यहाँ मजबूर है ,
हर कोई मंजिल से अपनी दूर है ।
ज़िन्दगी में कुछ नहीं हासिल मगर ,
आदमी कितना यहाँ मग़रूर है ।
जिसके दामन में भरा है जितना झूठ ,
वो आदमी उतना यहाँ मशहूर है ।
बाद मेहनत के भी जो है फ़ाक़मस्त ,
शर्तिया वो आदमी मज़दूर है ।
प्रदीप क्यों बदले वफ़ा का चलन ,
गर बेवफाई दुनिया का दस्तूर है .

Sunday, July 20, 2008

ग़ज़ल

इस तरह उलझा हुआ हूँ दुनियादारी में ,
अपनी सुध-बुध खो चूका हूँ दुनियादारी में ।
जाने उसकी किस अदा से मैं हुआ घायल ,
कितने सारे पेंच-औ-ख़म हैं तेग-ऐ-दुधारी में ।
भ्रूण हत्या का हुआ है देखो ये अंजाम ,
बस आदमी ही रह गए मर्दुमशुमारी में ।
आँख उठाते ही सभी शर्म-औ-हया जाती रही ,
अब छुपाने को रहा क्या पर्दा दारी में ।
कौन कहता है न खाए हमने ज़ख्म ,
धुल गए हैं यार की सब गमगुसारी में ।
खू के रिश्तों से तो दिल के रिश्ते हैं भले ,
ठोकरें ही खाई हमने रिश्तेदारी में ।
गर्त से मुझको उबारा मेहरबानी आपकी ,
वरना में भी जलता रहता बेकरारी में ।
साफगोई इस जहां से उठ गई ऐ प्रदीप ,
झूठ , मक्कारी बची बस दुनियादारी में .

अफ़सोस

अफ़सोस मैं फिर भी ज़िंदा हूँ !
इंसान नहीं मैं गुस्ताखियों का पुलिंदा हूँ ,
रोज नई नई गलतियाँ करता हूँ ,
अपने बुरे कामों का बोझ किसी पे
लादकर और बेशर्मी की चादर ओढ़कर ,
थोडी सी गर्दन झुका कर
बेगैरत होकर माफ़ी मांग लेता हूँ -जी मैं अपनी गलती पे शर्मिंदा हूँ ,
इंसान नहीं मैं गुस्ताखियों का पुलिंदा हूँ !
अफ़सोस मैं फिर भी ज़िंदा हूँ !
रात गई तो बात गई ,
फिर दिन निकला वही बात हुई ,
फिर वही झूठ फिर वही झमेला ।
कभी किसी का छीन अपने में डाला ,
कभी अपना भरने को उसे खंगाला .।
छीना झपटी लूट खसूट ,
मुझको भाता झूठ ही झूठ ।
सफल रहा तो किस्मत अपनी ,
वरना फिर बोलूँगा झूठ ।
जी बहुत मजबूर हूँ ,
अपनों से बहुत दूर हूँ
कोई मुझे काम नहीं देता
इसलिए पेट भरने के लिए बुरे काम करता हूँ ।
इस बार माफ़ कर दो आइन्दा ऐसा नहीं करूंगा ।
सच कहता हूँ मैं बहुत शर्मिंदा हूँ ।
इंसान नहीं मैं गुस्ताखियों का पुलिंदा हूँ !
अफ़सोस मैं फिर भी ज़िंदा हूँ !
जो मुझे समझाते हैं उनका क्या ?
उनका काम है मुझे माफ़ करना ,
और मेरा धर्म गलती करना ।
जैसे सबने मुझे माफ़ करने का ठेका ले रखा हो !
पर मैं ऐसा क्यों सोचता हूँ ?
मैं सोचने के लिए थोड़े ही बना हूँ ।
मैं पैदा हुआ हूँ बुरे काम करने के लिए ,
औरों को मार कर भी जीने के लिए ।
अपने चाहने वालों का दिल दुखाने के लिए।
क्योंकि मैं इंसान नहीं गलतियों का पुलिंदा हूँ ।
हलाँकि मैं अपने आप पे शर्मिंदा हूँ पर ॥
अफ़सोस मैं फिर भी ज़िंदा हूँ !
मैं बेशर्म हूँ इस लिए ज़िंदा हूँ ,
वरना ,
शर्म होती तो कब का मर जाता
न बेटी के आगे शर्मिन्दा होता ।
न चाहने वालों से मुंह छुपाता ।
न किसी का चैन छीनता
ना किसी के आंसुओ पे मुस्कुराता ।
काश मैं अपनी गलतियों पे सचमुच शर्मिंदा होता
तो मैं गलतियों का पुतला नहीं इक इंसान होता !

ग़ज़ल

सब कुछ होते मजबूर न हो ,
इतना भी कोई मजबूर न हो ।
ना खुद की कोई पहचान रहे ,
इतना भी कोई मशहूर न हो ।
जिल्लत सहकर भी जीना पड़े ,
इतना भी कोई मजबूर न हो ।
अपनों से आँख चुरानी पड़े ,
ऐसा भी कोई दस्तूर न हो ।
प्रदीप किसी को तड़पा कर ,
अपने दिल से भी दूर न हो.

ग़ज़ल

मेरा मकसद मेरी मंजिल तुम हो ,
मेरी जुस्तजू की मंजिल तुम हो ।
मेरा माजी औ मुश्तक्बिल हो तुम्ही ,
मेरी हसरतों का हासिल तुम हो ।
यूं तो देते हैं बहुत साथ मगर जो ,
दिल में धड़कती है वो धड़कन तुम हो ।
यहाँ सब हैं मुझको गिराने वाले ,
मेरी जानिब जो हाथ बढाए वो तुम हो ।
अब तक तो जिया यूं ही बेकार जहां में ,
मंजिल है मेरे आगे जब सामने तुम हो ।
प्रदीप अंधेरों में यूं ही जलता रहेगा ,
हिम्मत है मेरे साथ जब तक भी तुम हो

Friday, July 18, 2008

मुक्तक

मेरी ज़िन्दगी में है उससे बहार,
वही है मेरी फसल-ऐ- बहार ।
ऐसे बदली है ज़िन्दगी मेरी ,
जैसे पतझड़ के बाद आये बहार ।
मुझे आज भी है इंतज़ार ,
नहीं आयेंगे ये भी ऐतबार.

मुक्तक

1-
जानिबे नई शहर नज़र उठा ,
नज़र उठा ज़रा मुस्कुरा .
जो गुज़र गया उसे भूल जा ,
उसे भूल जा ज़रा मुस्कुरा .
2-
कुछ रिश्ते बेनाम रहे तो अच्छा है ,
कुछ काम बेंजाम रहे तो अच्छा है .
अपने मुकाल्मे में ऐ हमदम ,
बस तेरा - मेरा नाम रहे तो अच्छा है .
ओट में जिनके हो दगा हासिल ,
ऐसे रिश्तों से अनजान रहे तो अच्छा है .

Wednesday, July 16, 2008

छोटी छोटी बात

दीप से जब मैं पहली बार मिला तो उसके मस्तक की अनगिनत लकीरें साफ़ बता रही थीं कि उसके होटों पे ये मुस्कान बेवजह नहीं है. वह पढ़ा लिखा और औसत कद काठी का सीधा सादा आदमी है . उसे देखने से यही लगता कि उसे ज़िन्दगी से जैसे कोई शिकायत नहीं है .वो मुझे जब भी मिलता हंस के मिलता .उसके होटों पे मैंने कभी चुप्पी नहीं देखी , हमेशा एक मीठी सी हंसी , लेकिन उस हंसी के पीछे भी एक आम आदमी छुपा है और मैं सदा उसी इंसान को तलाशने की कोशिश करता . ये इंसान की फितरत होती है कि वह जो सामने होता है उसे न देखकर उसके पीछे क्या है यह जानने की कोशिश में रहता है . मैं भी तो आखिर एक इंसान ही ठहरा ,इसलिए मैं भी सोचता कि ये हमेशा क्यों हंसता रहता है ? हम दोस्त नहीं हैं मगर अक्सर पीवीआर पर मिलते तो एक दूसरे से खूब बातें होने लगी . हम अक्सर कुछ न कुछ खाते और पैसों के बारे में कभी कोई परवाह न करते . कभी मैं दे देता तो कभी वह .वह कितना संपन्न है मैंने ये जानने की कोशिश नहीं की. वह हमेशा अपने काम और साहित्य के बारे में बात करता . हम पीवीआर पर जैसे यही बात करने आते . मुझे याद नहीं कि उसने कभी यहाँ फिल्म देखी हो लेकिन उसे फिल्मों की अच्छी समझ थी इससे पता चलता कि वह फिल्म भी देखता है .आज भी जब वह मिला तो मैंने आदत के अनुसार पराँठे खाकर पैसे देने चाहे तो उसने जेब में हाथ डाला और पैसे निकालकर दे दिए . मैंने कुछ नहीं कहा और जेब से हाथ निकाल लिया .हम अक्सर यहाँ पराँठे खाने आते . पैसों पर हम कभी बहस नहीं करते ,कभी वो देता तो कभी मैं दे देता . अचानक मैंने देखा कि नीचे कुछ पड़ा है ,मैंने उसे उठाया और जेब में रख लिया . फिर हम थोडी देर घूमे और उसका फ़ोन आया तो वह उठकर चल दिया . उसे शायद कुछ ज़रूरी काम था इसलिए मैंने भी उसे नहीं रोका . मुझे अभी यहीं बैठना था सो मैंने वह कागज़ निकाला और पढने लगा .

वह शायद किसी नाटक के अंश थे . लेकिन नाम पढ़ते ही मैं चौंक गया . पहले ही पात्र का नाम दीप था . अब मुझसे नहीं रहा गया और मैं उस कागज़ को पढने लगा -
दीप - नमस्ते जी !
राजबिरी - नमस्ते बेटा जीता रह !
कैसे हैं आप ? दीप ने पूछा .
ठीक हूँ बेटा - राजबिरी ने कहा .
डॉक्टर ने एक हफ्ते बाद फिर आने को कहा है . वह बोली .
जी ! कह कर दीप अपने काम में लग गया .
मगर ये सन्नाटा ज्यादा देर तक नहीं रहा .
दीप की सास जी हाँ !राजबिरी उसकी सास ही हैं .दोनों जो बात करना चाहते थे उस पर आना चाहते थे . मगर सोच रहे थे कि बात कहाँ से शुरू करुँ . लेकिन दीप की ये मुश्किल जल्दी ही आसान हो गई . उसकी सास ने ही बात शुरू की .
राजबिरी - क्या बात है बेटा ? साफ़ साफ़ बताओ . मैं तो अपने दोनों दामाद को बहुत सराहती हूँ . सोचती हूँ कि दोनों बेटी सुखी हैं .
बात तो कुछ भी नहीं , और मानो तो बहुत बड़ी है . दीप बोला .मुझे ऐसा लगता है कि ये मेरे साथ नहीं रहना चाहती . मैं तो इसे समझाकर थक गया हूँ लेकिन ये समझना ही नहीं चाहती. सुबह नौ बजे उठती है और घर में देखो कैसा गंदा रहता है ? घर की कभी भी डस्टिंग नहीं करती . ऐसा लगता है जैसे होटल में रह रही हो . साफ़ सफाई से जैसे इसे कोई मतलब नहीं . अलमारी में कपडे देखो कैसे ठूंस ठूंस कर भर रखे हैं . प्रेस करने से कोई मतलब नहीं . पलंग के नीचे देखो कितना कबाडा है लेकिन मजाल है अच्छी तरह सफाई कर ले . एक वक़्त रोटी देती है वो भी रोकर . अक्सर तो खाने के वक़्त झगडा कर देती है . फिर तो एक वक़्त से भी कई दिन तक छुट्टी . बोलने की इसको अक्ल नहीं . मेरे साथ तो मेरे साथ मेरे दोस्तों के साथ भी बदतमीजी से बोलती है .दरअसल मैं इससे ऊब गया हूँ . अब तक मैं इसलिए नहीं बोला कि मैं मानता हूँ -
अपने दुःख लेके कहीं और न जाया जाए .
घर में बिखरी हुई चीजों को सजाया जाए .
लेकिन ये तो बिलकुल उलट सोचती है -
अपनी बातों को सरे बाज़ार सुनाया जाए ,
चाहे जैसे इसकी इज्ज़त को उतारा जाए .
पर बेटा ये सब छोटी छोटी बातें हैं . इनको लेकर क्यों घर में कलह करते हो ? राजबिरी बोली .
छोटी छोटी बात ? आपको ये छोटी छोटी बात लगती हैं ? दीप तैश में आकर बोला .
हाँ बेटा . ये बहुत छोटी बात हैं , इनको लेकर क्यों अपनी ज़िन्दगी खराब करते हो ? राजबिरी ने पूछा .
अचानक संजू भी बातों में शामिल हो गई .
संजू कहने को तो दीप की पत्नी है मगर असल में क्या है ये तो भगवान् ही जाने .दीप आज तक नहीं समझ सका कि वह है क्या . अपने पति के काम को उसने कभी अपना काम नहीं समझा . बैंक में चेक डालने के भी पैसे मांगती है . बेचारा रात रात भर काम करता है तब भी बीवी समझती है कि वह रात को किसी और से मिलने जाता है .महीने में कभी भूले भटके कपडों पर प्रेस कर दी तो ठीक वरना पहन लो बिना प्रेस के .
माँ मैंने बहुत सब्र कर लिया . अब मुझसे नहीं सहा जाता . संजू बोली .
दीप - तो मैं भी यही कह रहा हूँ कि इसको समझा लो .ये मैं बहुत मजबूर होकर कह रहा हूँ . आप इसे समझा सकती हैं तो समझाइये वरना मैं अब कहीं और रह लूँगा . इस हालत और इस टेंशन में यहाँ रहना नामुमकिन है . ज्यादा मजबूर किया तो मैं सब कुछ छोड़कर चला जाऊंगा. एक बालक है उसे भी यह अच्छी तरह से नहला नहीं सकती .
तुम तो रह लोगे पर ये कैसे रहेगी ? राजबिरी ने पूछा
मैं तो सब कुछ करती हूँ पर इसे ही समझ नहीं आता . संजू ने जवाब दिया .
एक तो ये बात बात पर तू तड़ाक करती है और लड़कियों की तरह मेरा पहरा देती है . दीप बोला .मेरे सोने के बाद मोबाइल चैक करती है . किसको फ़ोन किया किसको नहीं किया .किसकी मिस कॉल आई ,किसकी कॉल रिसीव की ? उसको सारा हिसाब चाहिए . दीप जैसे आज सब कुछ कहना चाहता था .
देखो बेटा ! राजबिरी बोली -ये बचपन से ही बहुत गुस्सा करती है . हमने इसे कुछ नहीं सिखाया . तुम तो समझदार हो . इसकी ऐसी बातों का बुरा मत माना करो . ये तो छोटी छोटी बातें हैं .
तो आप इसकी बजाये मुझे ही समझा रही हैं . दीप ने आश्चर्य चकित होकर पूछा ?
हाँ बेटा ! ये सब तो चलता रहता है .
माँ ये पैसे मांगते ही लड़ता है - संजू बोली .
तो क्या तुम तू तड़ाक से बात नहीं करती . दीप ने भी पूछा ?
नहीं . वह बोली .
उसके सफ़ेद झूठ को देखकर दीप दंग रह गया .अब दीप समझ गया कि उसकी ये आखिरी उम्मीद भी टूट गई . अब उसे जो कुछ करना है खुद ही करना है . ससुर तो अब रहे नहीं . सासू जी कुछ सुनने को तैयार नहीं . फिर भी वह हिम्मत बटोर कर बोला . ये जब जी में आता है अपने मायके चली जाती है मगर कभी अपने ससुर के घर नहीं जाती . मेरी माँ के लिए इसके मन मैं कोई इज्ज़त नहीं .
क्यों जाऊं मैं वहाँ , जहां मुझे कोई नहीं बुलाता - संजू बोली .
ठीक ही तो कहती है बेटा . ये मेरा अकेलापन दूर करने के लिए चली जाती है . राजबिरी बोली .
अब मैं समझ गया कि सब कुछ फिजूल है . मैंने जिनके लिए रात भर खटकर एक आशियाना लिया वो तो मेरे हैं ही नहीं. उनको ये सारी बातें छोटी छोटी लगती हैं जो मेरा जीना हराम किये हुए हैं .उसने भगवान् से पूछा कि ऐ मेरे मालिक अगर ये छोटी छोटी बातें हैं तो बड़ी कैसी होंगी ? उसने कभी पढा था कि आत्महत्या महापाप है शायद आज तक इसीलिए आत्महत्या के बारे में नहीं सोचा .अब उसने पक्का इरादा कर लिया कि जब तक निभेगा निभाऊंगा और जब बर्दाश्त से बाहर हो जायेगी तो घर दर सब कुछ छोड़कर कहीं दूर चला जाऊंगा .वहाँ , उस दुनिया में जहां ये छोटी छोटी बात न हों !
पूरा कागज़ ख़त्म हो गया था , मैं सोच रहा था कि क्या ये उस शख्स की दास्ताँ है जो मुझे रोज हंसते हुए मिलता है या किसी अधूरे नाटक के अंश ? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था . मैं उससे मिलकर पूछ भी नहीं सकता था . रात बहुत हो चुकी थी इसलिए मैंने कागज़ को जेब में रखा और घर की तरफ चल दिया . लेकिन मेरे पीछे पीछे छोटी छोटी बातें आ रही थी और उनका शोर बढ़ता ही जा रहा था . अब हर तरफ एक ही आवाज़ सुनाइए दे रही थी , हवा की सरसराहट एक ही राग छेड़ रही थी - छोटी छोटी बात

Tuesday, July 15, 2008

तुम न होती तो

तुम न होती तो मैं किधर जाता ,
रेत के घर सा मैं बिखर जाता .
मेरा वजूद न होता जग में ,
किसी ज़र्रे में ही नज़र आता .
तुम मेरी राह ,मेरी मंजिल हो .
बिन तेरे कब का मैं बिखर जाता .
तुमने फिर से मुझे संभाला है ,
वरना सेहरा में ही भटक जाता .
ना कोई मैल होता इस दिल में ,
प्यार से जो तेरे ये भर जाता .
तेरी चाहत में ही रहा जिंदा ,
वरना प्रदीप कब का मर जाता .