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Tuesday, August 18, 2009

याद

याद की कुछ वजह तो होती है,
हाय ये भी बेसबब नहीं आती ;
वो मेरे पास है साए की तरह ,
मगर उससे लिपट नहीं पाती ;
वो भले मुझसे दूर हो लेकिन ,
याद उसकी कहीं नहीं जाती ;
सितम उसके कम नहीं मुझपे,
पर वफ़ा भी भुला नहीं पाती ;
जो गुज़ारे हैं साथ दोनों ने ,
मैं वो पल भुला नहीं पाती;
फिर कभी कहीं मिलें शायद,
खुद को यूं मिटा नहीं पाती;
प्रदीप तुझको कैसे समझाऊं,
मैं ये खुद समझ नहीं पाती;

दो घड़ी

हम करें क्‍यों किसी की निन्‍दा,
कौन जाने हों दो घड़ी जिन्‍दा ;
तुमने मुझपे किए करम इतने,
एक पत्‍थर को कर दिया जिंदा;
जान होते हुए भी था मुर्दा ,
तुम मिले तो हो गया जिंदा;
ढल गई शाम हो लें रूखसत,
हम सुबह को मिलेंगे आइंदा;
मुझको खुश करोगी फिर हंसके,
देर तक कब रहा हूं आज़ुर्दा ;
पिंजरे से एक दिन उड़ जाएगा,
क़ैद कब तक रहेगा परिन्‍दा ;
सारी दुनिया को लूटकर देखो,
नेताजी कह रहा है दो चन्‍दा ;
महंगाई ज़ीरो तले भी जा पहुंची,
हमको ना कुछ दिखा कहीं मन्‍दा;
जो मिला पहले जी लें जी भरके,
बाद सोचेंगे क्‍या रहा पसमान्‍दा;
तुम मेरी जान मेरी मंजिल हो,
प्रदीप क्‍यूं भला हो शर्मिंदा ;

Monday, August 10, 2009

नाम

है बात अलग ये कोई क्‍या क्‍या कमाता है,
कोई दाम कमाता और कोई नाम कमाता है ;
आराम किसे नसीब है इस दुनिया में यारों,
कोई हंसके बिताता, कोई रोके बिताता है ;
हैं दर्द बहुत यूं तो हर सीने में लेकिन ,
कोई खुद से छिपाता, कोई सबको बताता है ;
उस शख्‍स का तो यारों अंदाज जुदा है कुछ,
वो दिल की तपिश को भी आंसू से बुझाता है;
कोई काम नहीं उसको ये सच है मगर लेकिन,
वो सुबह का निकला, घर रात को आता है;
जीने की तमन्‍ना में हम रोज ही मरते हैं,
कहीं सौदा इज्‍ज्‍त का, कोई आन गवांता है;
बदलेंगी नहीं रोकर ये हाथों की रेखाएं ,
अनमोल घड़ी तू फिर क्‍यों यूं ही गवांता है.
ले दे के फ़क़त मैंने बस इतना कमाया है,
प्रदीप अंधेरों को खुद जल के भगाता है ;

Wednesday, July 15, 2009

सिलसिला

घुप्‍प अंधेरा भगाने को क्‍या चाहिए ,
एक जलता हुआ बस दिया चाहिए .
जो न टूटे कभी भी किसी हाल में ,
अब तो ऐसा कोई सिलसिला चाहिए .
कितनी खामोशियाँ देखो पसरी यहाँ,
इस जहां में कोई जलजला चाहिए .
हो गई है जमा अपने रिश्तों में बर्फ,
हमको फिर आग़ाज ऐ मुरासला चाहिए.
हो रही है थकन फिर भी कट जाएगा,
इस सफ़र को तो अब मरहला चाहिए.
खाली बातों से कब बदले हैं निज़ाम ,
बेशक उसके लिए मुक़ातला चाहिए .
खाली रहने से तो अब न होगी गुज़र,
ज़िन्दगी के लिए कोई मशग़ला चाहिए.
कैसा ये और बोलो है किसका निज़ाम,
जिसको हर हाल में मदख़ला चाहिए .
आदमी की वहां क्‍या होगी बिसात ,
ख़ुदा से भी जहां मोजिज़ा चाहिए.
आपको चाहा तो क्‍यूं हुए हो ख़फ़ा ,
फांसी के वास्‍ते तो मज़लमा चाहिए .
जिनको तन्हाइयों ने सताया बहुत ,
प्रदीप उनको कोई हमइना चाहिए .

Monday, June 22, 2009

भगवान का रूप

मेरी बीवी
तीन साल की बच्ची से अक्सर ये पूछती है -
बेटी आप किससे ज्यादा प्यार करती हो ?
मम्मी से या पापा से !
तो वो सदा एक ही जवाब देती है --
दोनों से .
मैं जब भी उसे बाहर लेकर जाता हूँ
तो वो अक्सर कोई चीज़
खाने की ज़िद करती है;
खा तो पूरी एक भी नहीं पाती
मगर लेती हमेशा तीन है .
मैं इस गणित से होकर हैरान,
जब भी पूछता हूँ कुछ सवाल !
तो उसका एक ही जवाब होता है -
एक मम्मी के लिए,
एक पापा के लिए
और एक मेरे लिए .
अपने सीधे जवाबों से वो सदा यही समझाती है
कि बच्चे भगवान का रूप होते हैं,
इंसान अँधेरा तो वो धूप होते है .
भेदभाव को भला कब जानते है !
इसीलिए तो सबको समान मानते हैं !
इसीलिए तो सबको समान मानते हैं !!!

Friday, June 12, 2009

तुम

मुझे गुल मिले या खार, नहीं छूटता कोई,
आदत का हूँ गुलाम खुद दोषी नहीं कोई.
रहते थे तुम जो सामने रोता नहीं था दिल ,
बस इतनी ख़ुशी भी आपसे देखी नहीं गई .
फुरक़त के शब्-ओ-रोज बिताने के लिए ,
चिट्ठी लिखी बहुत मगर भेजी नहीं गई .
कल मिले और आज जुदा हो रहे हैं हम ,
दो चार पल की ख़ुशी भी सहेजी नहीं गई .
महंगाई जीरो पर है ये सरकार कह रही ,
कीमत किसी भी चीज़ की नीचे नहीं गई .
जो कुछ मिला, है मुझे जान से अजीज़ ,
मुझसे कोई भी चीज़ कभी छोड़ी नहीं गई.
यूं तो मुझे मिले बहुत लेकिन क्या करुँ ,
बन जाए मेरा दोस्त वो आया नहीं कोई.
जो भी मिला उसी में प्रदीप रहा मस्त ,
औरों की ख़ुशी से उसे चिढ़ नहीं रही .

Monday, June 01, 2009

अपनी एक सहकर्मी को समर्पित उसी की कहानी

वह कौन है , क्या है , कैसी है ,
ये आज तलक न जान सका .
है लड़की जैसी चीज़ कोई ,
बस इतना ही पहचान सका .
देखा जब उसको पहले पहल ,
कुछ गुमसुम सी शरमाई सी .
एक मूरत जैसे कुर्सी पर ,
कुछ बैठी थी घबराई सी .
और हाय हेलो के बदले में ,
कुछ बोली थी मुस्काई सी .
उस पल दो पल के मिलने में
बस इतना ही मैं जान सका .
है लड़की जैसी ..........................................

जब वक़्त ने करवट बदली, वो
फिर अपने दफ्तर में आई .
दफ्तर आते जाने कब वो ,
न्यूज़ रूम में घुस आई .
कुछ बद-इन्तजामी फैली फिर
एक शख्स रूम से बाहर हुआ .
वो पावरफुल एक लेडी है ,
ये तब मुझको अहसास हुआ .
वो रूप नया था रौब नया ,
बस इतना ही में जान सका .
है लड़की जैसी .....................

फिर नया रूप उसका देखा
वो मिलनसार व्यवहार कुशल .
वो खुला ज़हन और अपनापन ,
वो वाकपटु और चतुर चपल .
कुछ गुण नए उसमें देखे ,
हम बीते दिन फिर भूल गए .
वो गीत ग़ज़ल की दीवानी ,
फिर खुलने लगे कुछ राज़ नए .
उसके जीवन की पुस्तक का
ये नया वरक़ में जान सका .
है लड़की जैसी ...................

जो ठहरा था इक रोज कहीं ,
वो वक़्त लगा आगे बढ़ने.
और पन्ने उसके जीवन की
पुस्तक के, लगा में पढने .
फिर घर जैसा माहौल हुआ
जब लोग लगे वैसे लड़ने
जैस कि घर के बच्चे
सब इक दूजे से लड़ते हैं .
और अपनी अपनी ज़िद को लिए
सब लड़ते और झगड़ते हैं .
ऐसा भी नहीं इस झगडे में ,
इस मीन मेख के रगड़े में
वो गुण सारे काफूर हुए .
इस नोंक झोंक से न अपने
दिल के रिश्ते दूर हुए .
उसके मिल जुल कर रहने के
सदगुण को मैं जान सका .
है लड़की जैसी ..............................

वह लड़की आग की पुड़िया है
देखन में जैसे गुडिया है .
वह बात बात पे लड़ती है
मेमतलब सबसे झगड़ती है .
गुस्सा उसमें कुछ ज्यादा है
और भेजा गोया आधा है .
घर से खाने को लाती है
और बाँट सांट के खाती है .
गर छीन के कोई खाता है
तो खुद खाना तज देती है .
इस गुस्से से उसे क्या हासिल
न आज तलक मैं जान सका !
है लड़की जैसी .............................

मैं जितना उसको पढ़ता हूँ
वो उतना और उलझती है .
वो एक पहेली है ऐसी
जो मुझसे नहीं सुलझती है .
हर रोज नया कुछ खुलता है
गोया कोई प्याज का छिलका है .
कुछ दिन बीते तो उस पर भी
वक़्त बुरा ऐसा आया .
जो खुद को शेर समझती थी
सवा शेर उसने पाया .
कि वक़्त यहाँ है सबसे बड़ा
अब की हालात ने सिखलाया .
कुछ उथल-पुथल ऐसी आई
एक नई विपत्ति घिर आई .
कुछ काम नया अब उसको मिला
ये सुनकर उसका भेजा हिला .
गुस्से में भरकर यूं बोली
बन्दूक से ज्यूं निकले गोली .
ये काम नहीं मुझसे होगा
मैं छोड़ के सब कुछ जाऊंगी .
फिर लाख सँभाला सबने उसे
तब जाकर कुछ वो शांत हुई
वो बेहद गुस्सेवाली है
भेजा लगता कि खाली है .
कि हद से ज्यादा गुस्सा भी
कारण होता कमजोरी का .
एक दिन सबको ले डूबेगा
ये गुस्सा! हाँ मैं जान सका .
है लड़की जैसी .........................
.
ये प्यार मोहब्बत जितना भी
है अहम् हमारे जीवन में .
पर झगड़े और तकरार के बिन
क्या ख़ाक मज़ा है जीवन में !
ज्यों दिन के बाद ज़रूरी है
रात का काला अंधियारा ,
वैसे ही तकरार के बाद
आता है शमां प्यारा प्यारा .
ये जीवन !
जीने मरने का , प्यार में लड़ने झगड़ने का
दुःख और सुख में जीने का
हंसने का कभी रोने का
उठने का कभी सोने का
पाने का कभी खोने का
इन सबका अदभुत संगम है
वो लड़की जैसे जीवन है !
बस इतना ही मैं जान सका
वह लड़की है ! वह जीवन है !
बस इतना ही पहचान सका !
बस इतना ही पहचान सका !

Sunday, May 31, 2009

तुम्हारे बिन

तुम्हारे बिन हमारा घर,
हमारा घर नहीं लगता .
ईंट पत्थर का ये खंडहर,
हमारा घर नहीं लगता .
तेरे होने से होते थे ,
हमारे रात दिन रंगीन .
तेरी खुशियों में शामिल थे ,
तेरे ग़म में थे हम ग़मगीन .
मगर अब तो हमारा ग़म ,
हमारा ग़म नहीं लगता .
तुम्हारे बिन हमारा घर ............

बिगड़ना तुम पे आते ही ,
झगड़ना तुम से आते ही .
वो बेमतलब की बातों पर ,
बिगड़ना तुम पे आते ही .
मगर अब वक़्त ये कैसा ?
हमारा क्यों नहीं लगता ?
तुम्हारे बिन हमारा घर ..........................

वही हरियाली है बाहर ,
वही हैं पेड़ और पत्ते .
वही सब घर के अन्दर हैं
वहीं हैं कपडे और लत्ते .
मगर अब अपना बिस्तर भी ,
हमारा क्यों नहीं लगता ?
तुम्हारे बिन हमारा घर ......................

हवाएं अब भी चलती हैं ,
घटाएं अब भी घिरती हैं .
ये पंछी सांझ और तड़के ,
वो नग्मे अब भी गाते हैं.
मगर माहौल ये सारा ,
हमारा क्यों नहीं लगता ?
तुम्हारे बिन .......................................
कभी हम थके मांदे से ,
सभी दिन भर के कामों से .
निबटकर दौड़े-दौड़े से ,
जब अपने घर को आते थे .
सुकूं का वो इशारा अब ,
न जाने क्यों नहीं मिलता ?
तुम्हारे बिन .........................
तुम्हारे काम में हर पल ,
कमी हम ढूंढा करते थे .
तुम्हारे साथ लड़ने के ,
बहाने ढूंढा करते थे .
बहाने हैं बहुत से अब ,
तुम्हारा संग नहीं मिलता .
तुम्हारे बिन ...........................
तुम्हारी बेवकूफी को बताना ,
सबको हंस हंस कर .
ज़रा सी बात को भी ,
बढ़ाना खुश हो होकर .
कहाँ वो गुम हुआ जाकर ?
ज़माना क्यों नहीं मिलाता ?
तुम्हारे बिन ......................
वो पहले तो ज़रा सी
बात पे तुम को रुला देना .
ज़रा सी बात पे लेकिन ,
वो तुमको फिर हंसा देना .
वो मौसम प्यार वाला ,
फिर हमारा क्यों नहीं मिलता ?
तुम्हारे बिन ..............
किसी का नाम ले लेकर ,
चिढाना अपनी जाना को .
वो अपनी हरकतों से फिर ,
लजाना अपनी जाना को .
वो ही मौसम पुराना ,
फिर हमारा क्यों नहीं मिलता ?
तुम्हारे बिन ..................................
झगड़ कर के ज़रा सी बात पे ,
वो घर के टुकड़े कर देना .
वो हिस्सा तेरा ,ये है मेरा
बस तेरा ये कह देना .
मगर ये पूरा घर भी अब ,
हमारा क्यों नहीं लगता ?
तुम्हारे बिन हमारा घर
हमारा घर नहीं लगता !

जीवन

अगर ज़िन्दगी में कोई ग़म नहीं है ,
तो ख़ुशी ही ख़ुशी भी जीवन नहीं है.
मैं इंसान उसको भला कैसे कह दूं
किसी के लिए आँख गर नम नहीं है.
ग़म के बिना कोई जन्नत भले हो.
वो जीवन नहीं है वो जीवन नहीं है .
बेशक मोहब्बत है अहसास दिल का,
न होगा जहां कोई धड़कन नहीं है .
कहाँ तक छुपायेगा इंसान खुद को ,
जो फितरत छुपा ले वो दर्पण नहीं है .
उठो एक कोशिश तो फिर करके देखो,
न हल हो कोई ऐसी उलझन नहीं है.
जो अपनों ने मुझको दिए अपने बनकर ,
उन ज़ख्मों को भर दे वो मरहम नहीं है .
कहाँ तक ज़माने के कांटे बटोरूँ ,
जो सब को छुपा ले वो दामन नहीं है.
ग़म-औ- ख़ुशी का संगम है दुनिया ,
कोई गर न हो तो ये जीवन नहीं है.
दिल की तमन्ना बयाँ कर ही डालो,
सुनके न पिघले वो नशेमन नहीं है .
मोहब्बत है गर बयाँ भी वो होगी ,
ये दिल में छुपाने से छुपती नहीं है.
बहुत बातें मुझको करनी हैं तुमसे ,
कि एक बार मिलना काफी नहीं है .
अँधेरा बढ़ा तो फिर है हाज़िर प्रदीप .
जो रोशन न हो ऐसा गुलशन नहीं है .

Saturday, May 30, 2009

तेरी याद में

जिए जा रहा हूँ तेरी याद में ,
बहला रहा दिल तेरी याद में .
जो गुज़रे हैं पल कभी संग तेरे ,
गिने जा रहा हूँ तेरी याद में .
सुहाना सफ़र वो नहीं भूल पाता,
चला जा रहा जो तेरी याद में .
जां से है प्यारा वो जीवन का ,
पल, जो मैंने जिया है तेरी याद में .
बहुत खूबसूरत शमां है यहाँ, पर;
उससे भी बेहतर, जो तेरी याद में.
बहुत नाज़नीन मैंने देखी यहाँ ,
धड़कता है दिल ये तेरी याद में.
हम छोड़ आये पीछे जो पल,
मचलता है जी क्यों तेरी याद में.
मेरा शेर बेहतर वही है प्रदीप ,
लिखा जा रहा जो तेरी याद में .

Friday, May 29, 2009

आते जाते

मोहब्बत में ऐसे समय आते जाते ,
ज़माने गुज़रते ख़बर आते जाते .
है इंतज़ार अब भी यूं ही सलामत ,
गुजरा ज़माना ख़बर आते आते .
खुली आँख मेरी, है वक़्त-ऐ-आखिर,
कि वो आती होगी ख़बर आते आते .
इंतज़ार के बिन जीना था मुश्किल,
हमेशा अगर वो मेरे आगे होते .
मनाते रहे वो ज़माने को सारे,
मज़ा आता गर वो हमको मनाते.
गले से लगाकर बेशक मनाते ,
पहले हम उनको जी भर सताते .
मोहब्बत का उनको अहसास होता
प्रदीप की वो अगर सुनने आते .

रेहाना चाँद जी के परिचय के जवाब में

हम कहते हैं एक नई शहर उसको ,
आप कहती हैं गुमशुदा डगर जिसको.
एक दास्तान -ऐ- ज़िन्दगी है वो,
आप कहती हैं फ़क़त मुख्तसर जिसको .
मुसलसल बहती एक नदी है वो,
आप कहती हैं गुमशुदा नहर जिसको.
खुदा और दोस्तों का है करम बेशक,
लोग कहते हैं आपकी ज़बर उसको .
खुदा करे अविरल यूं ही बहती रहे ,
आप कहती हैं फ़क़त नहर जिसको .
आपके दिल से जो पीर निकली है,
लोग कहते हैं आपकी नज़म उसको .
आपकी आला कलम से जो निकला है ,
प्रदीप झुकाता है अपना सर उसको .

Friday, May 15, 2009

आप और हम

रूबरू आप जब नहीं होते,
उस घड़ी हम भी हम नहीं होते .
कुछ तो वजह होगी ज़रूर,
लब यूं ही बंद नहीं होते .
हौसला गर न हो दिल में ,
तो इरादे बुलंद नहीं होते .
कुर्बत के बाद भी,दिल मिले;
बिन फासले कम नहीं होते.
फूल गर खूबसूरत होता है ,
चाहने वाले भी कम नहीं होते .
जज्बातों को उभरने दो कि ये,
इस तरह से कम नहीं होते .
क्या हुआ गर घना अँधेरा है,
प्रदीप यूं चिराग मद्धम नहीं होते .

Thursday, May 14, 2009

बिन तुम्हारे ज़िन्दगी

बिन तुम्हारे क्या चलेगा आजकल,
थम गई है ज़िन्दगी भी आजकल.
आँखों से दरिया बहा करते हैं पर,
सांस मेरी थम गई है आजकल.
मिलने जुलने में भी होता मोलभाव,
ये तिज़ारत हो गई है आजकल .
बस्तियां सब बन गई हैं मंडियां ,
हर तरफ है कारोबार आजकल .
जी में आता है ये दुनिया छोड़ दूं ,
पर मौत भी महँगी हुई है आजकल.
बिन तुम्हारे सूना सूना है जहां,
भीड़ भी तन्हाई लगती आजकल.
जाते जाते जान भी तुम ले गए,
ज़िन्दगी बेजान है ये आजकल.
उम्र भर रौशन रहेगा ये प्रदीप,
हों भले कितने अँधेरे आजकल.

Monday, April 20, 2009

उनकी तारीफ़

उनका चेहरा गुलाब जैसा है ,
उनका हुस्न महताब जैसा है .
धूप की क्या उन्हें ज़रुरत है ,
वो तो खुद आफताब जैसा है .
उनसे क्यों कर सवाल मैं पूछूं ,
वो तो खुद ही जवाब जैसा है .
कहाँ तक जफा का ज़िक्र करुँ ,
ये तो सारा समाज ऐसा है .
हाय उनकी मिसाल किस से दूं ,
वो तो खुद लाजवाब जैसा है .
क्या कहूं कि वो फूल कैसा है,
मुझको लगता गुलाब जैसा है.
कैसे उनको बनाया कुदरत ने ,
वो मेरे हसीन खाब जैसा है .
हर तरफ आज उनके चर्चे हैं ,
वो किसी महव- ऐ- खाब जैसा है.
क्या दिखेगा उसके आगे प्रदीप ,
उनका चढ़ता शबाब ऐसा है .

Saturday, April 04, 2009

मैं और मेरी धड़कन

रखूंगा अपने दिल में तुम्हें धड़कन की तरह,
धड़का सदा करोगी मेरी धड़कन की तरह .
मुश्किल हो कि आसां हो जैसी भी घड़ी हो,
रखूंगा तुम्हें अपने साथ दर्पण की तरह .
कहने को तो हम बेशक़ न साथ रहेंगे ,
पर साथ सदा होंगे हमसाए की तरह .
कोई साथ नहीं रहता ता हस्र भले लेकिन,
हम साथ रहेंगे सदा किसी खुशबू की तरह .
जब तपती दुपहरी में साया भी न दे साथ ,
दो जिस्मों में होंगे हम एक जान की तरह .
क्यों डर हो बिछुड़ने का तुमसे मुझे हर पल,
जब आन बसी दिल में धड़कन की तरह .
इस दौर के इन्सान तो हो गए मशीन ,
खा जाते हैं रिश्तों को इंधन की तरह .
ये कैसी हवा अब के इस शहर में आई ,
क्यों दोस्त भी लगते हैं दुश्मन की तरह .
तुमको मेरी उल्फत पे ऐतबार नहीं लेकिन ,
क्यों उसको दिखाऊँ किसी फैशन की तरह.
माना कि अन्धेरा है इस जीवन में बहुत ,
प्रदीप संग जलेगा शमां-ऐ-रोशन की तरह .

Tuesday, March 31, 2009

चुप की ज़बान

चुप की ज़बां कभी समझी तो होती ,
मेरे दिल की हालत समझी तो होती .
तेरा रूठ जाना भी वाजिब है लेकिन ,
ज़रा मेरी मुश्किल भी समझी तो होती .
दिखावा मोहब्बत में न आता है मुझको,
जो हालत थी दिल की समझी तो होती .
हजारों तमन्ना बसी मेरे दिल में ,
कोई खाहिश तुमने भी समझी तो होती .
बहुत सारे अरमां थे मेरे दिल में ,
तुमने किसी की कद्र की तो होती .
तुम्हारे लिए ही धड़कता है ये दिल ,
कभी धड़कने भी समझी तो होती .
मोहब्बत के सावन बरसते हैं सब पे ,
कोई बारिश मुझपे भी बरसी तो होती .
तमन्ना मचलकर बयां हो ही जाती ,
ज़रा सी हवा जो दी तुमने होती .
मुलाक़ात तुमसे और जी भर के बातें ,
कहाँ मेरी किस्मत हकीकत ये होती .
ये दिल चाहता है बहुत तुमसे कहना ,
ज़बां से कोई बात निकली तो होती .
मोहब्बत तो करता है प्रदीप तुमसे ,
तपिश उसकी तुमने भी समझी तो होती .

प्रेमिका के लिए

तुम्हें दिल से लगाना चाहता हूँ,
तुम्हें अपना बनाना चाहता हूँ .
अपनी बांहों में भरके तुम्हें .
सारे जग से छुपाना चाहता हूँ
जिस घड़ी तेरे पास न हो कोई ,
मैं तेरे पास आना चाहता हूँ .
आज तक जो नहीं सुन पाया कोई ,
वही नग्मा सुनाना चाहता हूँ .
तमन्ना बसी है जो इस दिल में ,
वो सब तुमको बताना चाहता हूँ.
बहुत सी बातें अनकही हैं ,
वो सब तुमको सुनाना चाहता हूँ .
हुई मुद्दत मुझे आंसू बहाते ,
तेरी कुर्बत में मुस्कुराना चाहता हूँ .
छुपा जो भी प्रदीप के दिल में ,
हाल-ऐ-दिल सब बताना चाहता हूँ .

Monday, March 16, 2009

बाप और बच्चे का वार्तालाप

आ ! बच्चे अब बाहर आ जा ,
देर न कर आ जल्दी आ जा .
ये है रंग रंगीली दुनिया , लगती है सपनीली दुनिया .
कैसे इसको छोड़ के आऊँ ? तेरी दुनिया से घबराऊँ .
बोलो फिर क्यों बाहर आऊँ ?
ये भी रंग - रंगीली दुनिया , ये भी तो है तेरी दुनिया .
हैं सब तुझको चाहने वाले, तेरे नाज़ उठाने वाले .
देखो सब हैं बांह पसारे , तुझे पुकारे सांझ सखा रे .
आ बच्चे अब बाहर आ जा .
देर न कर आ जल्दी आ जा .
बात तुम्हारी मुझे डराती , भेदभाव का भय दिखलाती .
कुछ ऐसा अहसास है मुझको , ढोंग बहुत है उस दुनिया में .
मुझको प्यारी अपनी दुनिया , पाक साफ़ छोटी सी दुनिया .
क्यों न मैं इस पर इतराऊँ , बोलो क्यों मैं बाहर आऊँ ?

माना भेदभाव है इसमें , जोड़ और बिखराव है इसमें .
दुःख के साथ-साथ हैं सुख भी , नए-नए अंदाज़ हैं इसमें .
कुछ खट्टी कुछ मीठी बातें , अंधियारी और उजली रातें .
आओ तुमको सभी दिखाऊँ , लेकिन पहले बाहर आओ .
देर करो मत ! जल्दी आओ ...........
ऐसे मुझको मत बहलाओ , मुझको अपनी दुनिया अच्छी .
छोटा सा संसार है मेरा , छोटा सा घर बार है मेरा .
रंग रूप का भेद नहीं है , यहाँ कोई लिंग भेद नहीं है .
मैं जब खुश हूँ अपने घर में , फिर बोलो क्यों बाहर आऊँ ?

छोडो अब वो रैन बसेरा , तुझे बुलाए नया सवेरा .
तेरी माता तड़प रही है , सुन तो ! कैसे बिलख रही है .
दर्द को उसके अब तो समझो, मेरे बच्चे कुछ तो समझो.
मत उसको तुम और सताओ , आओ जल्दी से आ जाओ .

माना कि वो तड़प रही है , और दर्द से बिलख रही है.
लेकिन मैं ये कैसे भूलूँ ? अपनी ऐश को कैसे भूलूँ ?
बिन मांगे सब मिलता मुझको, कुछ भी यहाँ न खलता मुझको .
इतनी अच्छी दुनिया तजकर ,
कैसे मैं उस जग में आऊँ ?

देर करो मत अब तुम ज्यादा ,
मैं करता हूँ इतना वादा .
यहाँ तुम्हें कोई कष्ट न होगा , यकीं करो कुछ कष्ट न होगा .
उस दुनिया जैसी ही तुमको , अपनी माँ की गोद मिलेगी .
भेद भाव न होगा तुमसे , अपने हक की ख़ुशी मिलेगी .
बस ! अब इसको मत तड़पाओ !
आओ जल्दी से आ जाओ !

लगता है कुछ बिछुड़ रहा है , अब ये डेरा उजड़ रहा है .
ख़त्म हुआ अब दाना पानी , अब याँ रहना है बेमानी .
मेरी माता तड़प रही है , दर्द से इतनी मचल रही है .
कैसे अब मैं आँखें मूंदूं ? जी करता है बाहर कूदूं .
तेरे वादे पर भी मुझको , हाँ हाँ इत्मीनान हुआ है .
अपना वादा भूल न जाना ,भेद भाव से दिल न दुखाना .
अच्छा माँ अब और न तड़पो !
तेरा पेट मैं छोड़ रही हूँ . ....
तेरी गोद की खातिर देखो , मैं इस घर को छोड़ रही हूँ .
x x x x x x x x x x
फिर मेरी कुछ तंद्रा टूटी , कोई मुझे झंझोड़ रहा था .
बाहर ठिठुरन थी कुछ ज्यादा , अन्दर से कुछ शोर हुआ था .
मेरी नातिन दौड़ी आई , एक ख़ुशी कि खबर सुनाई .
तुम्हें मुबारक ! लक्ष्मी आई , इक बच्ची तेरे घर आई .

गोद लिया तो देखा उसको ,
आँख खोल वो घूर रही थी .
जैसे मुझसे पूछ रही थी !
याद अभी तक है क्या वादा ?

बेशक ! बेशक ! याद है मुझको
और हमेशा याद रहेगा .
भेद भाव हरगिज़ न होगा .
भेद भाव हरगिज़ न होगा .

Sunday, March 15, 2009

बहाना

काम जब भी नया कीजिये ,
दिल से ज़िक्र ऐ खुदा कीजिये .
उलझी लट पे उठे गर सवाल ,
फिर कुछ बहाना बना दीजिये .
गर छिड़े ज़िक्र ऐ दर्द औ ग़म ,
फिर ज़िन्दगी की हवा कीजिये .
दिल से चाहे जो उसके लिए ,
आप पलकें बिछा दीजिये .
क्या फिक्र जो हुआ ये खराब ,
काम फिर से नया कीजिये .
जाने वाले को मत टोकिए ,
हंस के उसको विदा कीजिये .
बख्श दो जो बुरा वो करे ,
पर बुराई मिटा दीजिये .
क्या हुआ जो गिरे बार बार ,
उठिए फिर हौसला कीजिये .
क्या करेंगे अँधेरे प्रदीप ,
कोई दीपक जला दीजिये .

एक झलक

मैं ये सोचकर उसके दर तक गया था कि झलक अपनी कोई दिखा देगी मुझको.
मगर उसने देखा न चेहरा दिखाया , अँधेरा था घर में नज़र कुछ न आया .
बहुत देर बैठा था पलकें बिछाए , के नज़रों को उसके दर पे टिकाये .
मगर वो न आये न दीपक जलाए , तमन्ना को सीने में यूं ही दबाये .
दरस बिन तरसती वो अँखियाँ छुपाये , मैं टूटे से दिल से वहाँ से उठा था .
क़दम ऐसे अंदाज़ से उठ रहे थे , के ज्यों लाश वो अपनी ही ढो रहे थे .
लचकती थी पिंडली खुद अपने वज़न से , वो हालत न पूछो अजी तुम क़सम से .
क़दम ज्यों धंसे हों ज़मीं दलदली में , बहुत टीस चुभती थी ज़मीं मखमली में .
उसकी गली से निकल कर अजी मैं ,जाने ये किस मोड़ पर आ गया हूँ .
उठा हाथ सीने की जानिब तो जाना , कि दिल तो वहीं छोड़कर आ गया हूँ .

मुक्ति चाहता हूँ मैं

मुक्ति चाहता हूँ मैं
रिश्तों के जंजाल से , ज़िन्दगी के जाल से .
हाल के बेहाल से , बेबसी के जाल से .
दर्द से मलाल से मुक्ति चाहता हूँ मैं .....
सब तरफ फरेब है , फरेब ही फरेब है .
स्वार्थी मनुष्य है , स्वार्थ ही स्वार्थ है .
इस फरेब औ एब से , मनुष्य के स्वार्थ से .
मुक्ति चाहता हूँ मैं -------
जो तुम्हें दिया हुआ , उससे हूँ बंधा हुआ .
कौल वो अमोल है , घुटन भरा माहौल है .
सांस कुंद कुंद से, इस घुटन की जिंद से .
मुक्ति चाहता हूँ मैं ........
कसमसाहट है बहुत , छट पटाहट है बहुत .
आजकल इस मन में कस मसाहट है बहुत .
जिससे हूँ बंधा हुआ , उस वचन को फेर लो .
आज उस वचन से बस . मुक्ति चाहता हूँ मैं ........
सुलग रहा है तन मेरा , जल रहा बदन मेरा .
क्रोध की अगन में आज, उबल रहा बदन मेरा .
उस वचन से , इस अगन से , मुक्ति चाहता हूँ मैं ....
काम में लगे नहीं , घर में भी लगे नहीं .
आज इस जहान में , कुछ मुझे जांचे नहीं .
इस सुलगती आग से , अपने फूटे भाग से .
मुक्ति चाहता हूँ मैं .........
कल तलक सभी को जो , सिखा रहा था ज़िन्दगी .
आज उसी शख्स को , सिखा रही है ज़िन्दगी .
इस सीखने सिखाने से , और इस ज़माने से .
मुक्ति चाहता हूँ मैं .........
मुक्ति चाहता हूँ मैं ...............

घर

एक छत तले कितने सारे अजनबी रहते रहे ,
और हम नादान कितने उसको घर कहते रहे .
इक नदी बहती हुई लगने लगी ये ज़िन्दगी ,
कितने सारे रिश्ते इसमें बिन रुके बहते रहे .
चार दीवारें खड़ी कर एक छत भी डाल दी ,
बेखुदी में इस मकां को हम भी घर कहते रहे .
तंग आये इस बेकसी औ बेबसी से हम ,
लोग जाने क्यों इसे ज़िन्दगी कहते रहे .
अब ये जाना उसके मन में मैल था कितना भरा ,
लोग हंसकर मिलने को ही बंदगी कहते रहे .
अपना ग़म लेकर नहीं जाते कहीं ऐ प्रदीप
उम्र भर ये सोचकर चुपचाप ग़म सहते रहे .

Friday, March 13, 2009

फर्क

फर्क
कभी कभी वक़्त भी हमें कैसे कैसे सबक सिखाता है ? कहते हैं कि वक़्त सबसे बड़ा शिक्षक होता है . वही हमें चीजों में फर्क करना सिखाता है . कभी कभी इंसान सही गलत का फैसला नहीं कर पाटा. जब दो घटना घटती हैं तो उनकी तुलना करने पर ही हम जान पाते हैं कि सही क्या है और गलत क्या ? अक्सर हम हर मीठे बोल बोलने वाले को दोस्त समझ लेते हैं . सच तो ये है कि एक दो मुलाक़ात में दोस्त की पहचान करना बहुत मुश्किल होता है. इस बारे में मुझे एक घटना याद आ रही है . एक दिन की बात है . मुझे ऑफिस के लिए देर हो रही थी क्योंकि किसी काम के सिलसिले में देर तक घर रहना पडा . अचानक फोन बजा तो मैंने देखा वो मेरी प्यारी दोस्त का फोन था. राम राम करके उसने मुझे कहा . कहाँ जा रहे हो ?
ऑफिस , मैंने जवाब दिया .
आज मत जाओ . वह बोली.
क्यों ? मैंने चौंक कर पूछा . क्योंकि वह मुझे काम कम करने को कहती थी मगर ये कभी नहीं कहा कि काम बंद कर दो. मैं चौंका इसलिए कि वह काम पर जाने को ही मना कर रही थी . कहते हैं कि फर्स्ट इम्प्रेशन इज द लास्ट इम्प्रेशन, मगर एक इंसान को समझने के लिए एक मुलाक़ात कुछ भी नहीं . उसके लिए तो पूरा जन्म भी कम होता है. इंसान तो प्याज के छिलके की तरह होता है जितना उसको जानोगे , उसके साथ रहोगे ,उतना ही उसे समझते जाओगे. दोस्त किस तरह से आपको खुश रखना चाहता है ! इसका अंदाजा लगाने में हम अक्सर गलती कर देते हैं . मैं उसे मना नहीं कर सका मगर मन में सोच रहा था कि पता नहीं क्या बात है ?
मैं कुछ ऐसा नहीं मांग रही सडियल , जो इतना सोचने लगे - जवाब में देरी से वह शायद मेरी उलझन समझ गई थी .
नहीं यार ऐसी कोई बात नहीं - मैंने जवाब दिया.
तो ऐसा करो सीधे स्वागत रेस्तरां पहुँचो .उसने हुक्म सुनाया .
वो कहाँ है ? मैं बोला . मैंने नाम तो सुना था मगर एक्जेक्ट कहाँ है ये नहीं जानता था .
अरे ! कटवारिया के पास आओ किसी से भी पूछना बता देगा . उसने मुझे डांटते हुए कहा .
ठीक है कितने बजे आना है ? मैंने हार मानते हुए पूछा .
११ बजे . हम तीनों आ रहे हैं . उधर से जवाब आया .
ओके कह कर मैंने फोन काट दिया . लक्ष्मी मेरी बहुत अच्छी दोस्त है. अक्सर हम देर तक बात करते हैं . कोई विषय नहीं जिस पर हम चर्चा न करते हों . वह बेहद समझदार लेडी है . कहती है दसवीं तक पढ़ी हूँ मगर इतनी अच्छी दोस्त होते हुए भी उसकी इस बात पे मैं आज तक यकीन नहीं कर पाता . क्योंकि वह बात ही इतनी समझदारी भरी करती है . मानो दर्शन शास्त्र में महारत हासिल हो . उसके सामने मुझे अपनी एमए की दो दो डिग्री भी कम लगती. ज़िन्दगी के बारे में उसके तजुर्बे से मुझे अपनी उलझन सुलझाने में बहुत मदद मिलती. मगर उसकी इस बात से मुझे अपने एक दिन के काम के नुकसान की पड़ी थी . ११ बजे से पहले ही मैं स्वागत रेस्तरां पहुँच गया . स्वागत रेस्तरां देखने में तो किसी हट जैसा लगता है. मैंने अन्दर झाँककर देखा तो लक्ष्मी अभी नहीं आई थी . रेस्तरां पर कोई बोर्ड नहीं लगा था इसलिए तसल्ली के लिए मैंने सामने बैठे आदमी से पूछा -
स्वागत रेस्तरां यही है क्या ?
जी सर ! उसने विनम्रता से जवाब दिया .
मैं बाहर निकल आया और लक्ष्मी का इंतज़ार करने लगा. कुछ देर में वो तीनों आई और सीधी अन्दर रेस्तरां में चली गई . मैं अभी सोच ही रहा था कि वो बाहर निकली . मैं दरवाज़े पर ही खड़ा था. शायद उनको रेस्तरां पसंद नहीं आया था. कहीं और चलते हैं . ये बात कान में पड़ते ही मेरा दिल ख़ुशी से तेज तेज धड़कने लगा . मुझे यहाँ तक आने का अफ़सोस था तो कुछ खर्च न होने की ख़ुशी भी थी . जब तक कार मुड़कर नहीं आई मैं वहीं खड़ा रहा. कार गुजरी तो मैं निश्चिंत हुआ और चल दिया . मैंने सोचा कुछ देर ही हुई है ऑफिस चलता हूँ . अभी मैं बस स्टाप पर ही खड़ा था कि फ़ोन की घंटी बजी . उसी का फ़ोन था .
नहीं आया न सडियल ! उधर से आवाज आई .
मगर मैं तो वहीं था और मैंने तुमको देखा भी था , जब तुम रेस्तरां में आई . मैंने सफाई दी .
तो बताओ मैंने क्या पहना था ? उसने पूछा . उसे शायद अब भी यकीन नहीं हुआ था कि मैं आया हूँ.
मैंने साडी का रंग बताया तो वो कुछ संतुष्ट होते हुए बोली कि बावले वो मैं नहीं मेरी दोस्त थी .
पर मैं तो समझा कि तुम हो . मैंने जवाब दिया .
तो अब कहाँ जा रहा है ? लक्ष्मी ने पूछा .
ऑफिस जा रहा हूँ . मैं बोला .
नहीं ! लक्ष्मी ने अधिकार पूर्वक कहा .
तो ? मैंने पूछा .
सीधे अरबिंदो मार्केट आओ . लक्ष्मी ने हुकुम सुनाया .
मगर मैं जब तक आऊंगा तुम निकल जाओगे . मैंने न जाने का बहाना बनाया.
नहीं , मैं कुछ नहीं जानती फटाफट आओ . लक्ष्मी बोली.
ठीक है , आता हूँ . मैंने लगभग हार मानते हुए कहा .
मैंने बस पकड़ी तो देखा कि रास्ते में बहुत जाम था.
कुछ देर में उसने फिर फ़ोन किया . मेरे हेलो करने से पहले ही बोली . कहाँ है ?
एन सी इ आर टी . मैंने जवाब दिया . बहुत जाम लगा है यार .
मैं कुछ नहीं जानती , जल्दी ऑटो पकड़ के आ . लक्ष्मी ने हुकुम सुनाया .
मैं ऑटो पकड़ कर पहुंचा और जल्दी से रेस्तरां में प्रवेश किया. वो तीनों एक टेबल पर बैठी थी और आर्डर दे रही थी . बैरा मेरे पास आया तो मैंने भी आर्डर दिया और उनसे कुछ दूर बैठ गया .
उन्होंने हल्का फुल्का आर्डर दिया था सो जल्दी ही खाकर निकल ली . मैं आर्डर दे चुका था इसलिए पूरा खाना खाकर ही निकला. पूरे ४२५ रूपये खर्च हुए थे . खुद पे ही सही मेरे बहुत रूपये खर्च हो गए थे . मुझे याद नहीं मैंने कभी इतना महंगा खाना खुद खरीद कर खाया हो . मैं खाकर ही निकला था कि उसका फ़ोन आ गया . क्या हुआ ? उसने छूटते ही पूछा .
अभी खाकर निकला हूँ . मैंने जवाब दिया .
कैसा रहा ? लक्ष्मी ने पूछा .
खाना अच्छा था मगर बहुत महँगा . मैं बोला.
कंजूस कभी खुद पे भी खर्च किया कर . लक्ष्मी ने कहा .
तुम तो मेरी आदत जानती हो . मैंने कहा .
तो क्या हुआ खुद पे ही तो खर्च किये हैं . अफ़सोस क्यों कर रहे हो ? लक्ष्मी ने ताना मारा.
नहीं ऐसी बात नहीं . मैंने सफाई देने की कोशिश की.
जा अब घर जा ! लक्ष्मी ने यह कहकर फ़ोन काट दिया .
अब इतने पैसे कैसे कमाऊंगा ? यही सोचते हुए मैं घर की तरफ चल दिया . खाना अच्छा था लेकिन मुझे पैसे जयादा खर्च होने का अफ़सोस था . कुछ भी हो मैं इस सब के पीछे दोस्त की नेक भावना को नहीं समझ रहा था .
बात आई गई हो गई . कुछ दिन बाद मेरी एक लड़की से जान पहचान हो गई और वो अक्सर मुझसे मिलने के लिए कहती . मगर मेरे पास वक़्त ही नहीं था . एक दिन मैंने सोचा कि चलो मिल ही लेता हूँ . मैंने उसे फ़ोन किया . तो वो बोली कि पीवीआर पे आ जाओ .
ठीक है मैं वहाँ पहुँच कर फ़ोन करता हूँ . मैं बोला .
ओके ! रूबी बोली . जी हाँ उसका नाम रूबी है . किसी एड एजेन्सी में काम करती है . नेट पर हमारी जान पहचान हुई . उसके बारे में बहुत कम जानता हूँ . फिर भी वो फ़ौरन मिलने को तैयार हो गई . मुझे न जाने क्या खटका . मैंने पीवीआर जाकर भी उसे फ़ोन नहीं किया. कुछ दिन बाद उसका मेसेज आया .
तुमने कॉल नहीं की उस दिन . रूबी ने शिकायत के लहजे में पूछा था .
उस दिन अचानक बहुत काम आ गया था और जल्दी में कॉल भी नहीं कर सका .
एक लड़की से मिलने की कमजोरी मैं छुपा नहीं सका . कुछ दिन बाद उसे फिर कॉल किया .
हेलो रूबी !
ओह हाय ! रूबी बोली.मैं फ्री हूँ . आज मिलते हैं .
ठीक है . बोलो कहाँ आ रही हो . मैंने पूछा .
पीवीआर मिलते हैं . रूबी ने जवाब दिया .
ठीक है . मैंने हामी भरी .
मैं नीली जींस में हूँगी . उसने पहचान बताई .
कुछ देर इंतज़ार करते ही मेरा जी घबराने लगा और मैं वहाँ से कुछ दूर चला गया . १०-१५ मिनट उसका फ़ोन नहीं आया तो मैं बेफिक्र हो गया कि चलो बला टली . मगर वो ख़ुशी ज्यादा देर नहीं रही . उसका फ़ोन आया . कहाँ हो ? रूबी बोली .
मैं तो यहीं हूँ . मैंने जवाब दिया .
मैं नीली जींस में हूँ और पीवीआर के सामने खड़ी हूँ . रूबी बोली .
ठीक है मैं आ रहा हूँ. मैंने जवाब दिया .
जाते ही देखा तो वो वहीं थी . मुझे देखते ही उसने आगे बढ़कर हाथ मिलाया .
बेझिझक वो ऐसे बात करने लगी जैसे अपनी बहुत पुरानी जान पहचान हो .
क्या लोगी ? मैंने औपचारिकता में पूछा .
बरिस्ता में चलते हैं . रूबी बोली.
ओके . मैंने हाँ में सर हिलाया .
उसे देखते ही बैरा बोला -
हेलो मेमसाब.
रूबी उसको हेलो कहकर आगे बढ़ गई .
हम दोनों एक कोने में जाकर बैठ गए .
कुछ देर में बैरा आया . और मीनू कार्ड रख कर चला गया .
वेज या नॉन वेज ? रूबी ने मुझसे पूछा .
वेज . मैंने जवाब दिया .
हाँ . मैं भी नहीं खाती शाम को . रूबी बोली . मैं तो सलाद लूंगी .
मेरे लिए बर्गर . मैं बोला .
बैरा आया तो रूबी ने आर्डर दिया .
हम खाना खाते रहे और बात करते रहे . क्या क्या बातें की मुझे नहीं मालूम .
ये खाना खाते खाते मुझे अरविंदो मार्केट वाले खाने की याद आ गई . मैं उस दिन के साथ आज की तुलना कर रहा था और खाना ठूस रहा था . खाना खाकर वह बोली - चलें ?
हाँ . मैंने जवाब दिया .
मैंने पेमेंट किया और ६८५ रूपये के बिल को पॉकेट में रख लिया .
वह हाथ मिलाकर फिर मिलने का वादा करके चल दी .
मैं भी घर की तरफ चल दिया . रास्ते में भी मैं उस दिन के खाने से आज की तुलना कर रहा था .
उस दिन जो बात मैं नहीं समझ सका था . आज मुझे अच्छी तरह समझ में आ गई थी कि उस दिन के खाने और आज के खाने में क्या फर्क था ? एक दोस्त ने मुझे खुद पे खर्च करने के लिए बुलाया था तो भी मैं उसकी नेकनीयती को इतने दिन बाद समझ सका .दोस्त क्या होता है ? वह अपने दोस्त को कैसे खुश करता है यह बात मैं अच्छी तरह समझ गया था. एक वो थी जिसने सिर्फ मेरी ख़ुशी के लिए मुझे खाने पे बुलाया था और अपना बिल देकर चलती बनी और एक ये थी कि मेरे खर्च पे खाया और चलती बनी . उस दिन लक्ष्मी ने मुझे किस भावना से बुलाया था , मैं अच्छी तरह समझ गया था . ज़िन्दगी की भाग दौड़ में दोस्त को कैसे एक ख़ुशी का अहसास कराया जाता है वो अच्छी तरह जानती है . एक ये थी जो अपनी ख़ुशी के लिए जीती है और एक वो है जो दूसरे की ख़ुशी के लिए जीती है . अच्छा दोस्त क्या होता है , आज मैं अच्छी तरह समझ गया था .

Friday, February 20, 2009

ज़िन्दगी

पुलिस चौकी में घुसते ही दीप ने इधर उधर देखा। वो हवलदार राम सिंह को तलाश रहा था .राम सिंह ने ही उससे फ़ोन पर बात की थी और चौकी आने के लिए कहां था. जब कुछ न सूझा तो वो रिपोर्टिंग रूम में गया और नमस्ते करके बोला , जी मुझे राम सिंह से मिलना है .
क्या काम है ? सामने बैठे सिपाही ने रौबदार और कड़क आवाज़ में पूछा
जी मेरा नाम दीप है , उन्होंने मुझे बुलाया है , दीप बोला।
ओह ! तो तुम दीप हो, उसने पूछा ।
जी हाँ ! दीप बोला।
जाओ रूम नंबर ३ में जाओ । उसने कड़क आवाज़ में कहा.
दीप रूम नंबर ३ में गया। वहाँ दो सिपाही बैठे थे . दीप ने दोनों की नेम प्लेट देखी . एक का नाम बिजेंद्र और दूसरे का मोहन था.
क्या बात है ? बिजेंद्र ने पूछा ।
जी मुझे हवलदार राम सिंह से मिलना है , दीप बोला ।
अच्छा तो तू दीप है ? बिजेंद्र ने पूछा ।बैठ जा साहब नहा रहे हैं . वह बोला .
दीप बैठ गया ।
क्या बात है , तू अपनी बीवी को क्यों तंग करता है बे ? बिजेंद्र बोला ।
जी नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं , दीप बोला ।
तो क्या वो झूठ बोलती है ? अब तक चुप बैठे मोहन ने पूछा ।
जी मैं क्या बताऊँ ? दीप बोला ।
ये तेरा घर नहीं है बे, सच सच बता क्या बात है ? वरना बंद कर देंगे । बिजेंद्र ने कड़क कर हुकम सुनाया.
दीप कुछ देर चुप रहा और सोचने लगा कि कल क्या हुआ था ?कल क्या ये रोज़ की बात थी । उसकी बीवी पता नहीं उससे क्या चाहती थी ! सारी बातें चलचित्र की तरह उसकी आँखों के आगे घूमने लगी . शाम का वक़्त था . दीप रोज़ की तरह कंप्यूटर पर काम कर रहा था. अचानक उसकी बीवी पीछे आकर खड़ी हो गई . वो पहले ही बहुत तनाव में था . बहुत ज़रूरी अनुवाद करना था. बीवी के पीछे आते ही उसका पारा सातवे आसमान पर पहुँच गया. और गुस्से में बोला कि पीछे से हटो .
मगर वो कहाँ हटने वाली थी । दरअसल उसे कुछ काम तो था नहीं . खाना पीना और सोना जैसे इसी के लिए उसने इस धरती पर जन्म लिया था . जब भी दीप कंप्यूटर पर बैठता तो उसे लगता कि वो चैटिंग कर रहा है. हाँ ये सच है कि वो चैटिंग करता था मगर इस कारण उसने कभी अपना काम नहीं छोडा . वो चैटिंग करता तो अपनी सोशल नेट्वर्किंग के लिए . मगर ये बात वो अपनी बीवी को कभी नहीं समझा सका . शायद वो समझना ही नहीं चाहती थी .अचानक बात तू तू मैं मैं और फिर गाली गलौच तक पहुँच गई . वो गुस्से में किसी वैश्या की तरह बात करती. पति की इज्ज़त क्या होती है वो नहीं जानती , शायद उसे किसी ने कभी सिखाया ही नहीं. बात जब बर्दास्त से बाहर हो गई तो दीप ने उठकर रूम का दरवाजा बंद कर लिया . बाहर जाते ही वो और भी जोर जोर से गाली देने लगी . मां बहन की गाली देते वक़्त वो दीप को बहुत बुरी लगती . दीप उसे चुप रहने को कहता तो वो और जोर से चिल्लाती . थक कर दीप कमरा बंद करके काम करने लगा . बहुत देर तक खामोशी रही और इस दौरान दीप को याद ही नहीं रहा कि कुछ हुआ भी था. दरअसल ये रोज़ की बात थी और अब उसे इसकी आदत सी हो गई थी . वो समझकर, डराकर , धमकाकर और यहाँ तक कि पीटकर भी थक चुका था. अचानक दरवाजा पीटने के शोर से दीप चौंक गया. उठकर दरवाजा खोला तो देखा कि सामने एक सिपाही और संजू का रिश्तेदार खडा है .
क्या बात है बे , पीसीआर को फ़ोन क्यों किया था । सिपाही ने पूछा .
जी मैंने तो नहीं किया । दीप ने जवाब दिया.
तूने अपनी बीवी को ज़हर दे दिया है , और अब भोला बन रहा है . सिपाही बोला .दीप को अब उस सन्नाटे की वजह मालूम हुई . इस बीच उसकी बीवी ने ज़हर खाकर पीसीआर को कॉल कर दी थी .
क्या कर रहे हो ? सिपाही ने पूछा जी कुछ ज़रूरी अनुवाद कर रहा हूँ . दीप ने जवाब दिया .
चल सब कुछ बंद कर और हमारे साथ चल . सिपाही ने हुकम सुनाया. जल्दी जल्दी कंप्यूटर बंद करके दीप बाहर निकला . छोटे से बेटे को कहाँ ले जाता इसलिए उसको बीवी के रिश्तेदार के हवाले किया और जीप में जा बैठा. सिपाही दीप की बीवी को भी साथ ले आया और उसे जिप्सी में बिठा लिया . चेहरे से नहीं लग रहा था कि उसने ज़हर खाया है .
क्या बात है , क्यों अपनी बीवी को सताते हो ? सिपाही ने पूछा
ये मुझे रोज़ पीटता है , संजू बोली . जी हाँ वो दीप की बीवी ही थी . देखने में ऐसी कि कोई भी धोखा खा जाए और अंदाजा लगा ले कि बहुत भोली और सीधी है .
पता नहीं सारा दिन किस किस लड़की से चैटिंग करता रहता है . हमें कुछ टाइम नहीं देता . संजू बोली .
दीप को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये क्या हो गया !
सिपाही ने फिर पूछा -अबे चुप क्यों है ? दीप की तंद्रा टूटी .
जो कुछ हुआ था उसे अब भी यकीन नहीं हो रहा था. जी मुझे बहुत काम रहता है . कोई पक्की नौकरी नहीं है. इधर उधर काम करता हूँ . बाहर ज्यादा न रहूँ , इसलिए घर पे कंप्यूटर ले लिया और रात दिन काम करता हूँ. दीप बोला .
तो इसको पीटता क्यों है ? सिपाही ने पूछा .
जी ये दहेज़ माँगता है - संजू बोली .
उसका झूठ सुनकर दीप दंग रह गया .उसे याद नहीं , कभी उसने दहेज़ की मांग की हो . साधारण शादी की . कुछ सामान नहीं लिया . शायद यही सोचकर दीप के ससुर ने पचास हज़ार रुपए दे दिए थे . मगर वो भी शादी के कई साल बाद . न उसने मांगे और न ही कभी मना किया. मगर वो चुप रहा . अस्पताल आ गया था . जिप्सी रुकी तो सिपाही ने उतरने को कहा . सिपाही संजू को लेकर नीचे उतरा . लेकिन वहाँ जगह नहीं थी ,इसलिए डॉक्टर ने दूसरे अस्पताल ले जाने को कहा . फिर सब जीप में बैठ गए . एम्स के आपात कक्ष में संजू को ले गए और उसको बिठा दिया. अभी कोई डॉक्टर उपलब्ध नहीं था क्योंकि शिफ्ट बदल रही थी . अपनी फोर्मलिटी पूरी करके सिपाही चला गया . दीप को उसने समझा दिया कि डॉक्टर आये तो पर्ची दिखा कर इलाज़ करवा लेना. तब तक संजू के और रिश्तेदार भी आ गए थे. डॉक्टर आया तो संजू का इलाज़ शुरू हुआ. डॉक्टर ने उलटी करवाई तो संजू के पेट से कुछ मटमैला सा निकला . दीप को अब तक यकीन नहीं हो रहा था . अब उसे पता लगा कि संजू ने सचमुच कुछ खा लिया है.
क्यों बे , इसे ज़हर क्यों दिया ? डॉक्टर ने पूछा .
जी मैंने नहीं दिया इसने खुद ही खाया है . दीप ने जवाब दिया .
डॉक्टर ने अलग ले जाकर दीप से पूछा -क्या करते हो ?
जी मैं एक अखबार में काम करता हूँ . दीप बोला
ये हरकत क्यों की , अब हम तुम्हारी खबर छपवायेंगे . डॉक्टर बोला
तुम्हारी बीवी कह रही है कि तुम उसको मारते पीटते हो .
जी नहीं - दीप ने कहा तो क्या वो झूठ बोल रही है ?
डॉक्टर उससे बहुत प्रभावित नज़र आ रहा था . दीप को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे. संजू के कई रिश्तेदार भी वहीं थे , उन सबने उसे समझाया कि पुलिस अब बयान लेने आएगी तो उनको कहना कि कुछ नहीं हुआ . भूल से गलत दवाई खा ली . इतने में पुलिस आ गई .
आते ही हवलदार ने पूछा - कौन है इसके साथ ?जी मैं , ये मेरी बीवी है - दीप बोला .
क्या करता है ? राम सिंह ने पूछा दीप उस हवलदार का नाम देख चुका था . नाम तो राम सिंह था मगर दीप को वो रावण से कम नहीं लग रहा था . ठीक है दूर हटो यहाँ से . राम सिंह ने हुकम सुनाया .दीप कुछ पीछे हट गया . कुछ देर में बयान पूरे हुए तो हवलदार दीप के पास आकर बोला -तेरी बीवी कहती है कि तुम इसे रोज़ पीटते हो . दहेज़ मांगते हो और दूसरी औरतों से चक्कर चलाते हो .
जी ये झूठ बोल रही है - दीप बोला .
चुप बे ! राम सिंह ने दीप को डांट पिलाई .
जी मैं सच कह रहा हूँ . दीप ने समझाने की कोशिश की. मगर हवलदार ने उसकी एक न सुनी . दरअसल वो इसे दहेज़ का मामला समझ रहे थे .संजू के रिश्तेदार दीप को दिलासा दे रहे थे कि कुछ नहीं होगा .मगर दीप सब समझ रहा था कि क्या हो रहा है !उसे पूरी दुनिया फालतू नज़र आ रही थी . लगता था जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया .हवलदार सुबह चौकी आने के लिए कहकर चला गया .

अबे चुप क्यों हो गया ? मैं कुछ पूछ रहा हूँ । बिजेंद्र बोला .
जी मैं क्या कहूं ! दीप बोला . कुछ समझ नहीं आता कि क्या कहूं . पिछले कई साल से दिन रात मेहनत करके दो कमरे का मकान लिया . मगर उसे कभी घर नहीं बना सका . बनाता कैसे. वो इसमें होटल की तरह रहती है . जैसे खाने और सोने के लिए ही उसमें रहती हो . काम में कोई मदद नहीं करती . ऊपर से तंग और करती है . कम्प्यूटर पर काम करता हूँ तो समझती है दूसरी लड़कियों से चैटिंग कर रहा हूँ . सब कुछ छोड़कर पीछे बैठ जाती है और जो भी चैटिंग होती है उसे पढ़ती रहती है . न टाइम पर खाना न सोना . जगह जगह काम करके कोई पक्की नौकरी न होते हुए भी मकान ले लिया . पर उसको क्या ?
तो तू उसको टाइम क्यों नहीं देता बे - मोहन बोला.
साले बीवी को पैसा ही नहीं कुछ और भी चाहिए .
जी इसीलिए तो मैंने घर पे काम शुरू किया . दीप ने जवाब दिया .
और कौन कौन हैं यहाँ ? मोहन ने पूछा
जी मेरे सगे हैं मगर मैं उनको बुलाना नहीं चाहता . दीप बोला.
तो ठीक है तुझे बंद कर देते हैं . दोनों सिपाही एक सुर में बोले .
ठीक है मैं भी जेल जाकर खुश हूँ . कम से कम वहाँ रात दिन मरना तो नहीं होगा .और मुझे तो लगता है कि वहाँ मेरी ज़िन्दगी आराम से कटेगी.तब तक राम सिंह भी आ चुके थे. आते ही कड़क कर पूछा
क्या है बे ? क्या चाहता है ?
साहब ये तो कहता है कि बंद कर दो , दीप के कुछ बोलने से पहले ही बिजेंद्र बोला .
तो ठीक है बंद कर दो साले को . राम सिंह ने तैश में आकर जवाब दिया .
मगर साहब ये खुद मजबूर है , और उसने सब बात हवलदार को बता दी .
तो जाने दो इसे , राम सिंह बोला .
लाचार दीप कुर्सी से उठा तो बिजेंद्र बोला
-देख भाई . एक बात सुन . सब कानून औरत के लिए हैं . तेरी कोई नहीं सुनेगा . इसलिए उसे कुछ टाइम दे और आराम से रह .
जी कोशिश करूंगा. कहकर दीप वहाँ से बाहर निकला .
अब उसे लग रहा था कि ज़िन्दगी की आफत से इतनी आसानी से छुटकारा नहीं मिलने वाला . जब तक लिखा है यहीं भागना पड़ेगा . मगर एक बोझ तो उसने उतारने का फैसला कर लिया था . जितनी जल्दी हो सकेगा वो पचास हज़ार रुपये संजू के घर वालों को लौटा देगा क्योंकि दहेज़ का कलंक सर लेकर जीना बहुत मुश्किल है .

Friday, February 13, 2009

तुम

चुप रहकर भी सब कुछ मुझसे कहते हो ,
यार मेरे तुम अब भी दिल में रहते हो ।
खुशियों की बारिश करते हो तुम सब पे ,
अपना गम पर तन्हाँ तन्हाँ सहते हो ।
क़दम मेरे डगमग होते हैं जिस पल भी ,
संबल बनकर साथ मेरे तुम रहते हो ।
सारी दुनिया जब लगती है बेगानी ,
उस पल भी तुम मेरे बनकर रहते हो ।
जो मिलता, गम देकर चल देता है ,
खुशियों के सावन लेकर तुम आते हो ।
मुद्दत गुज़री यूं तो बातें किये हुए,
फिर भी अक्सर संग मेरे तुम रहते हो ।
रिश्ते सारे दुनिया में हैं मतलब के ,
दोस्त तुम ही जो बेमतलब संग रहते हो ।
अपनी मर्ज़ी से कब जलता है प्रदीप ,
तुम ही हो जो मुझको रौशन करते हो .