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Sunday, April 06, 2008

कैसे तुम कविता लिक्खोगे ? संपादित

बातों में उसकी आकर्षण , रूप में है उसके आकर्षण .सोहनी सूरत , मोहनी मूरत , है आकर्षण ही आकर्षण .है आदर्श मुकम्मल नारी , लगती है दुनिया से न्यारी ,फुर्सत में हर अंग को गढ़कर, है धरा पे गई उतारी .बाल सजीले , नैन सजीले ,भरा हुआ है मादकपन,लचक चाल में हथिनी जैसी ,करती कोयल सा क्रंदन .सुन्दरता उसकी लगती है जैसे निर्मल बहती सरिता ,मिलते ही अहसास हुआ है लिक्खूँ उस पर कविता !
मेरे मन की थाह को पाकर ,बोली वो कुछ तैश में आकर ! सुन्दरता देखी है तुमने , अंतर्मन को कब देखा ?रूप निरखकर मोहित हो, गम के धन को कब देखा.?सागर भी दिलकश लगता है ,बाहर से गर देखो तो,अन्दर कितनी है गहराई , बिन डूबे किसने देखा ?मेरे भीतर छुपे हुए हैं ,गम के कई समंदर ,जो भोगा , जो कुछ झेला सब छुपा हुआ है अन्दर .जब तक गम की थाह न लोगे, तब तक बोलो क्या लिक्खोगे ?आधे-अधूरे अहसासों पर , कैसे तुम कविता लिक्खोगे ?
पहले मेरा हर हाल सुनो,दुःख में बीता हाल सुनो .जो बन के आंसू बहता रहा ,उस लहू का सारा हाल सुनो !
जो बनने और सँवरने को बचपन का खेल समझती थी उस बाल वधू के सपने कैसे , कलियों की तरह गए मसले .जिसमें मेरे अरमान जले वो आग हवस की कैसी थी ?गुड्डे गुडिया का खेल वो कब , कुछ पल में आफत बन बैठा ये खेल जिस्म का ऐसा जो मेरी जान की सांसत बन बैठा .जब सब कुछ मैंने खोया था वो रात न पूछो कैसी थी ?उस रात में सब कुछ खोकर भी हासिल मुझको कुछ भी न हुआ नैनों से नीर बहाकर भी ये चाक जिगर रफू न हुआ .मैं क्या थी और क्या बन बैठी, क्या पाकर कितना लुटा बैठी ?बेदिल से होती क्रीडा का , सब कुछ खोने की पीडा का . पहले सारा तुम हाल सुनो !आते ही मुझ पर कुछ उसने ,ऐसा रोब जमाया था मेरा तन मन उसका है ऐसा अहसास कराया था .एक बाज़ की भांति उसने फिर ,मुझे नोच-नोच कर खाया था बकरी और शेर के किस्से को ऐसे उसने समझाया था वो उसकी गरम-गरम साँसे बदबू और सडन भरी साँसे मेरी साँसों से टकराती थी .नन्ही चिडिया बिन पंखों के फिर उस जालिम के पंजों में बेबस सी छट पटाती थी !औरत और मर्द का ये रिश्ता अब तक न जो समझती थी ,माँ -बाप और भाई बहनों के रिश्ते वो फ़क़त समझती थी .लेकिन उस रात ने फिर मुझको कुछ ऐसा पाठ पढाया था जो अब तक मैंने सीखा था कुछ पल में हुआ पराया था उसे देख के मेरी सिहरन का डर में बढ़ती उस धड़कन का ,बिन फूल बने ही कुचलने का, वो पल पल चीख निकलने का , पहले सारा तुम हाल सुनो ! वो रात न जाने कैसी थी , खुशियों पर कालिख मल बैठी ,इक नन्हीं गुडिया कुछ पल में एक पूरी औरत बन बैठी .बच्ची से औरत होने में , कुछ पल में सब कुछ खोने में ,एक शेर की मांद में सोने में , उस सिसक सिसक कर रोने में ,कितने दुःख मैंने झेले हैं पहले सारा वो हाल सुनो ! फ़िर कहना तुम उस पीड़ा को ,कमसिन लड़की की क्रीडा को .दिन रात टपकते आंसू को .झर झर बहते उन झरनों को ,आँखों से छिनते सपनों को .बेगाने होते अपनों को शब्दों में कैसे ढालोगे ?तुम कविता कैसे लिक्खोगे ?हूँ ! तुम मुझपे कविता लिक्खोगे !

कैसे तुम कविता लिक्खोगे

बातों में उसकी आकर्षण , रूप में है उसके आकर्षण ।
सोहनी सूरत , मोहनी मूरत , है आकर्षण ही आकर्षण ।
है आदर्श मुकम्मल नारी , लगती है दुनिया से न्यारी ,
फुर्सत में हर अंग को गढ़कर, है धरा पे गई उतारी ।
बाल सजीले , नैन सजीले ,भरा हुआ है मादकपन,
लचक चाल में हथिनी जैसी ,करती कोयल सा क्रंदन ।
सुन्दरता उसकी लगती है जैसे निर्मल बहती सरिता ,
मिलते ही अहसास हुआ है लिक्खूँ उस पर कविता !
मेरे मन की थाह को पाकर ,बोली वो कुछ तैश में आकर !
सुन्दरता देखी है तुमने , अंतर्मन को कब देखा ?
रूप निरखकर मोहित हो, गम के धन को कब देखा।?
सागर भी दिलकश लगता है ,बाहर से गर देखो तो,
अन्दर कितनी है गहराई , बिन डूबे किसने देखा ?
मेरे भीतर छुपे हुए हैं ,गम के कई समंदर ,
जो भोगा , जो कुछ झेला सब छुपा हुआ है अन्दर ।
जब तक गम की थाह न लोगे, तब तक बोलो क्या लिक्खोगे ?
आधे-अधूरे अहसासों पर , कैसे तुम कविता लिक्खोगे ?
पहले मेरा हर हाल सुनो,दुःख में बीता हाल सुनो ।
जो बन के आंसू बहता रहा ,उस लहू का सारा हाल सुनो !
जो बनने और सँवरने को बचपन का खेल समझती थी
उस बाल वधू के सपने कैसे , कलियों की तरह गए मसले ।
जिसमें मेरे अरमान जले वो आग हवस की कैसी थी ?
गुड्डे गुडिया का खेल वो कब , कुछ पल में आफत बन बैठा
ये खेल जिस्म का ऐसा जो मेरी जान की सांसत बन बैठा ।
जब सब कुछ मैंने खोया था वो रात न पूछो कैसी थी ?
उस रात में सब कुछ खोकर भी हासिल मुझको कुछ भी न
हुआ नैनों से नीर बहाकर भी ये चाक जिगर रफू न हुआ ।
मैं क्या थी और क्या बन बैठी, क्या पाकर कितना लुटा बैठी ?
बेदिल से होती क्रीडा का , सब कुछ खोने की पीडा का । पहले सारा तुम हाल सुनो !
आते ही मुझ पर कुछ उसने ,ऐसा रोब जमाया था
मेरा तन मन उसका है ऐसा अहसास कराया था ।
एक बाज़ की भांति उसने फिर ,मुझे नोच-नोच कर खाया
था बकरी और शेर के किस्से को ऐसे उसने समझाया था
वो उसकी गरम-गरम साँसे बदबू और सडन भरी साँसे मेरी साँसों से टकराती थी ।
नन्ही चिडिया बिन पंखों के फिर उस जालिम के पंजों में बेबस सी छट पटाती थी !
औरत और मर्द का ये रिश्ता अब तक न जो समझती थी ,
माँ -बाप और भाई बहनों के रिश्ते वो फ़क़त समझती थी ।
लेकिन उस रात ने फिर मुझको कुछ ऐसा पाठ पढाया था
जो अब तक मैंने सीखा था कुछ पल में हुआ पराया था
उसे देख के मेरी सिहरन का दर में बढ़ती उस धड़कन का ,
बिन फूल बने ही कुचलने का, वो पल पल चीख निकलने का , पहले सारा तुम हाल सुनो !
वो रात न जाने कैसी थी , खुशियों पर कालिख मल बैठी ,
इक नन्हीं गुडिया कुछ पल में एक पूरी औरत बन बैठी ।
बच्ची से औरत होने में , कुछ पल में सब कुछ खोने में ,
एक शेर की मंद में सोने में , उस सिसक सिसक कर रोने में ,
कितने दुःख मैंने झेले हैं पहले सारा वो हाल सुनो !
फ़िर कहना तुम उस पीड़ा को ,कमसिन लड़की की क्रीडा को ।
दिन रात टपकते आंसू को ।झर झर बहते उन झरनों को ,
आँखों से छिनते सपनों को ।बेगाने होते अपनों को शब्दों में कैसे ढालोगे ?
तुम कविता कैसे लिक्खोगे ?
हूँ ! तुम मुझपे कविता लिक्खोगे !

कैसे तुम कविता लिक्खोगे

जो बनने और सँवरने को बचपन का खेल समझती थी
उस बाल वधू के सपने कैसे , कलियों की तरह गए मसले ।
जिसमें मेरे अरमान जले वो आग हवस की कैसी थी ?
गुड्डे गुडिया का खेल वो कब , कुछ पल में आफत बन बैठा
ये खेल जिस्म का ऐसा जो मेरी जान की सांसत बन बैठा ।
जब सब कुछ मैंने खोया था वो रात न पूछो कैसी थी ?
उस रात में सब कुछ खोकर भी हासिल मुझको कुछ भी न हुआ
नैनों से नीर बहाकर भी ये चाक जिगर रफू न हुआ ।
मैं क्या थी और क्या बन बैठी, क्या पाकर कितना लुटा बैठी ?
बेदिल से होती क्रीडा का , सब कुछ खोने की पीडा का । पहले सारा तुम हाल सुनो !
आते ही मुझ पर कुछ उसने ,ऐसा रोब जमाया था
मेरा तन मन उसका है ऐसा अहसास कराया था ।
एक बाज़ की भांति उसने फिर ,मुझे नोच-नोच कर खाया था
बकरी और शेर के किस्से को ऐसे उसने समझाया था
वो उसकी गरम-गरम साँसे बदबू और सडन भरी साँसे मेरी साँसों से टकराती थी ।
नन्ही चिडिया बिन पंखों के फिर उस जालिम के पंजों में बेबस सी छट पटाती थी !
औरत और मर्द का ये रिश्ता अब तक न जो समझती थी ,
माँ -बाप और भाई बहनों के रिश्ते वो फ़क़त समझती थी ।
लेकिन उस रात ने फिर मुझको कुछ ऐसा पाठ पढाया था
जो अब तक मैंने सीखा था कुछ पल में हुआ पराया था
उसे देख के मेरी सिहरन का दर में बढ़ती उस धड़कन का ,
बिन फूल बने ही कुचलने का, वो पल पल चीख निकलने का , पहले सारा तुम हाल सुनो !
वो रात न जाने कैसी थी , खुशियों पर कालिख मल बैठी ,
इक नन्हीं गुडिया कुछ पल में एक पूरी औरत बन बैठी ।
बच्ची से औरत होने में , कुछ पल में सब कुछ खोने में ,
एक शेर की मंद में सोने में , उस सिसक सिसक कर रोने में ,
कितने दुःख मैंने झेले हैं पहले सारा वो हाल सुनो !
फ़िर कहना तुम उस पीड़ा को ,
कमसिन लड़की कि क्रीडा को ,
दिन रात टपकते आँसू को,
झर-झर बहते उन झरनों को ,
आंखों से छिन्न ते सपनो को
बेगाने होते अपनों को
शब्दों में कैसे लिक्खोगे
कैसे तुम कविता लिक्खोगे ?
हूँ , तुम मुझ पे कविता लिक्खोगे !