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Monday, June 01, 2009

अपनी एक सहकर्मी को समर्पित उसी की कहानी

वह कौन है , क्या है , कैसी है ,
ये आज तलक न जान सका .
है लड़की जैसी चीज़ कोई ,
बस इतना ही पहचान सका .
देखा जब उसको पहले पहल ,
कुछ गुमसुम सी शरमाई सी .
एक मूरत जैसे कुर्सी पर ,
कुछ बैठी थी घबराई सी .
और हाय हेलो के बदले में ,
कुछ बोली थी मुस्काई सी .
उस पल दो पल के मिलने में
बस इतना ही मैं जान सका .
है लड़की जैसी ..........................................

जब वक़्त ने करवट बदली, वो
फिर अपने दफ्तर में आई .
दफ्तर आते जाने कब वो ,
न्यूज़ रूम में घुस आई .
कुछ बद-इन्तजामी फैली फिर
एक शख्स रूम से बाहर हुआ .
वो पावरफुल एक लेडी है ,
ये तब मुझको अहसास हुआ .
वो रूप नया था रौब नया ,
बस इतना ही में जान सका .
है लड़की जैसी .....................

फिर नया रूप उसका देखा
वो मिलनसार व्यवहार कुशल .
वो खुला ज़हन और अपनापन ,
वो वाकपटु और चतुर चपल .
कुछ गुण नए उसमें देखे ,
हम बीते दिन फिर भूल गए .
वो गीत ग़ज़ल की दीवानी ,
फिर खुलने लगे कुछ राज़ नए .
उसके जीवन की पुस्तक का
ये नया वरक़ में जान सका .
है लड़की जैसी ...................

जो ठहरा था इक रोज कहीं ,
वो वक़्त लगा आगे बढ़ने.
और पन्ने उसके जीवन की
पुस्तक के, लगा में पढने .
फिर घर जैसा माहौल हुआ
जब लोग लगे वैसे लड़ने
जैस कि घर के बच्चे
सब इक दूजे से लड़ते हैं .
और अपनी अपनी ज़िद को लिए
सब लड़ते और झगड़ते हैं .
ऐसा भी नहीं इस झगडे में ,
इस मीन मेख के रगड़े में
वो गुण सारे काफूर हुए .
इस नोंक झोंक से न अपने
दिल के रिश्ते दूर हुए .
उसके मिल जुल कर रहने के
सदगुण को मैं जान सका .
है लड़की जैसी ..............................

वह लड़की आग की पुड़िया है
देखन में जैसे गुडिया है .
वह बात बात पे लड़ती है
मेमतलब सबसे झगड़ती है .
गुस्सा उसमें कुछ ज्यादा है
और भेजा गोया आधा है .
घर से खाने को लाती है
और बाँट सांट के खाती है .
गर छीन के कोई खाता है
तो खुद खाना तज देती है .
इस गुस्से से उसे क्या हासिल
न आज तलक मैं जान सका !
है लड़की जैसी .............................

मैं जितना उसको पढ़ता हूँ
वो उतना और उलझती है .
वो एक पहेली है ऐसी
जो मुझसे नहीं सुलझती है .
हर रोज नया कुछ खुलता है
गोया कोई प्याज का छिलका है .
कुछ दिन बीते तो उस पर भी
वक़्त बुरा ऐसा आया .
जो खुद को शेर समझती थी
सवा शेर उसने पाया .
कि वक़्त यहाँ है सबसे बड़ा
अब की हालात ने सिखलाया .
कुछ उथल-पुथल ऐसी आई
एक नई विपत्ति घिर आई .
कुछ काम नया अब उसको मिला
ये सुनकर उसका भेजा हिला .
गुस्से में भरकर यूं बोली
बन्दूक से ज्यूं निकले गोली .
ये काम नहीं मुझसे होगा
मैं छोड़ के सब कुछ जाऊंगी .
फिर लाख सँभाला सबने उसे
तब जाकर कुछ वो शांत हुई
वो बेहद गुस्सेवाली है
भेजा लगता कि खाली है .
कि हद से ज्यादा गुस्सा भी
कारण होता कमजोरी का .
एक दिन सबको ले डूबेगा
ये गुस्सा! हाँ मैं जान सका .
है लड़की जैसी .........................
.
ये प्यार मोहब्बत जितना भी
है अहम् हमारे जीवन में .
पर झगड़े और तकरार के बिन
क्या ख़ाक मज़ा है जीवन में !
ज्यों दिन के बाद ज़रूरी है
रात का काला अंधियारा ,
वैसे ही तकरार के बाद
आता है शमां प्यारा प्यारा .
ये जीवन !
जीने मरने का , प्यार में लड़ने झगड़ने का
दुःख और सुख में जीने का
हंसने का कभी रोने का
उठने का कभी सोने का
पाने का कभी खोने का
इन सबका अदभुत संगम है
वो लड़की जैसे जीवन है !
बस इतना ही मैं जान सका
वह लड़की है ! वह जीवन है !
बस इतना ही पहचान सका !
बस इतना ही पहचान सका !

8 comments:

Rohit said...

Nice poem

Renu Sharma said...

hi, pradeep ji.
behad sundar rachana hai .
kisi ko samajh kar shabdon main piro dena koi aasan to nahi hota jo aapane kiya hai .
achchha likha hai.
renu

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

वह कौन है? क्या है? कैसी है?
ये आज तलक न जान सका|
ये आजतक आप ही क्या पूरी दुनिया नही जान पाई...अच्छी रचना...

shama said...

Aapki ye rachnaa bhi padhi...lekin isme, bin tumhare waalee baat nahee nazar aayee..!
Bura to nahee laga? Jab aapne apna paimana tay kiya, ham useepe aapko tol rahe hain !Kshama prarthi hun, gar gustaqee huee ho!

Ye matlab nahee ke rachna sundar nahee hai,
Par ye waisee nahee hai!

Maine jaanke fiqre nahee jode..

Meree maa ko aapki rachnayen suna rahee thee...! Unki orse bhee badhayi qubool karen!

Kisee sahkarmee ke liye itnaa achhaa likh panaaa, yebhi aasaan kaam nahee hai...
Usebhi badhaee de rahee hun, aur kahungi ke khush qismat hai, jise aap jaisa zaheen aur sanjeeda sahkarmi mila ho !

Pradeep Kumar said...

शमा जी,
इतने अच्छे और बेलाग कमेन्ट के लिए धन्यवाद !
बेशक आपकी बात सही है . कि इस रचना में "तुम्हारे बिन " वाली बात नहीं है . यूं तो इसके बहुत से कारण हो सकते हैं मगर में तो ये मानता हूँ कि इस रचना का विषय ही अलग था जबकि तुम्हारे बिन" विरह कि कविता है . जहां तक मैं मानता हूँ कि -
वियोगी होगा पहला कवि, आह से निकला होगा गान , निकल कर आँखों से चुपचाप , बही होगी कविता अनजान .
मतलब ये कि विरह कि कविता में दिल के उदगार होते हैं जब कि ऐसी रचना में कुछ दिमाग से भी लिखना पड़ता है. मेरा तो यही मानना है सही क्या है ये तो आप जैसे कविता के जानकार ही bataa सकते हैं . फिर भी आइन्दा कोशिश करूंगा कि कविता का स्तर बना रहे .
माता जी बधाई सर माथे !
निजी व्यस्तता के कारण जवाब बहुत देर से लिख पाया इसके लिए माफ़ी चाहता हूँ .
एक बात और मैंने आपको एक सुझाव दिया था कि ( वही कहानी के अंत के बारे में ) कि हर ब्लॉग में एक मेसेज छोड़कर या एक नया ब्लॉग बनाकर ऐसा किया जा सकता है उसका लिंक आप दोस्तों को मेल कर सकती हैं . शायद कुछ बात बने और अच्छा रेस्पोंस मिले . आपने उसका कोई जवाब ही नहीं दिया . शायद सुझाव पसंद नहीं आया ?

shama said...

Pradipji,
Zarranawazi karte hain aap..mai bikul jaankaar nahe..!
Gar samay mile to mujh pratiyogit ke baareme samajha sakenge...as to how to go abt? I nkow what u mean, but how to impliment it!!Not so techno savvy!

shama said...

Aapkaa sujhaaw beshaq pasand aaya...(kahanee ke ant ko leke)...sirf mujhe un baaton kee technicalies bata den, shukr guzaar rahoongee..!

Suman said...

prdeep ji namste. aap ne meri rachna ko pasand kiya aapka dhnyavad .vise meiy blog jagat me bilkul nai hun.maine aapki sari rachnaye padhi hai.sundar hai.