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Friday, September 16, 2016

मैं खुश हूँ आज भी

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 मैं  खुश  हूँ  आज  भी
.......
खुश तो  हूँ  मैं  आज भी
यकीनन  !
क्योंकि  दुखी  होता  तो
वक्त  ठहर गया  होता ,
लेकिन इसे  तो जैसे
पंख लगे हैं,   आज भी
ये सरपट  दौड़ रहा है . .
कब  दिन  निकलता है ,
कब रात  होती है ,
पता ही नहीं  चलता !
ठीक  वैसे ही जैसे -
स्कूल  से  आते ही
बस्ता पटक कर निकल  जाना
और  कंचे व काई -डंडा
खेलते  -खेलते
कब सांझ हो गई !
पता ही नहीं  चलता  था ।
ठीक  वैसे ही जैसे  -
शाम को  घर  आते ही,
छुपम -छुपाई  तो कभी,
पकड़म-पकड़ा खेलते- खेलते
कब रात  हो गई !
पता ही नहीं  चलता  था ।
ठीक वैसे ही  जैसे  -
इंटर कॉलेज  से लौटते समय
जमौए खाते - खाते
या आम खाते- खाते
कब दोपहर  ढल  गई !
पता ही नहीं  चलता  था  ।
ठीक  वैसे ही जैसे  -
काॅलेज  जाने के लिए
बस  में  बैठे  दूर से ही ,
उसे निहारते  -निहारते
कब स्टाॅप आ गया !
पता ही नहीं  चलता  था  ।
ठीक  वैसे ही जैसे  -
फिजिक्स  की नीरस क्लास में
देखते  रहते थे  एक कोने में
कि  इक बार तो देखेगी !
इस आस में,
पीरियड  कैसे  बीत  जाता था !
पता  ही नहीं  चलता  था  ।
ठीक  वैसे ही जैसे  -
गांव की  गली  में  खड़े - खड़े
उसकी सिर्फ एक  झलक
देखने के लिए,
पहर कैसे  बीत  जाती थी !
पता  ही नहीं  चलता  था ।
ठीक  वैसे ही जैसे -
खेत में काम करते हुए
पड़ोस में गेहूं  काटती  लड़की
को देखते - देखते और
काम  करते - करते
कब सुबह से  दोपहर
और दोपहर  से सांझ हो गई !
पता ही नहीं  चलता  था ।
ठीक  वैसे ही जैसे -
कभी  ट्रेन के सफर में साथ
होती थी  सुंदर  सी  सवारी
और  स्टेशन कब आ गया !
पता ही नहीं  चलता  था ।
 आज ऐसा  कुछ भी नहीं है,
मगर  वक्त  दौड़  रहा है. .
न किसी को  देखने की  आस
न खेलना,  न  उछल  कूद,
न बस, न ट्रेन,  न स्कूल,
न काॅलेज  और न गली का चौराहा।
तो फिर  वक्त  क्यों   दौड़  रहा है  ?
खूब  सारा  काम  और
ढेर सारी  किताबें ,
टेलीविजन  की मारधाड़ से दूर,
कुदरत  की गोद  में ..
यह  अलग  ही दुनिया  है ,
जहां  काम   के  साथ-साथ
 दोस्तों   से  चैटिंग करते -करते
थक जाओ तो  घूम  आओ ,
किताब  पढ़ो , लिखो या
 सो जाओ, गहरी नींद  में...
सुबह से  दोपहर ,
दोपहर  से  सांझ और
सांझ से रात , फिर  रात  से सुबह
कैसे  होती है,  पता ही नहीं  चलता !
इसीलिए मैं  आज भी  खुश  हूँ ।
....
प्रदीप कुमार

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