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Saturday, October 25, 2008

ग़ज़ल

रोज़ तिल से पहाड़ होती गलती,
शुक्र ये कि अब नहीं होती गलती।
कोई अपना जो मुझसे रूठा है ,
अब ये दुनिया ही कुछ नहीं लगती ।
माफ़ी की अब भी है मुझे उम्मीद ,
बेशक वो थी बहुत बड़ी गलती।
मैं अगर देखता भी रहूँ मुड़कर ,
ज़िन्दगी किसी तरह नहीं थमती ।
आज भी उसकी जुस्तजू है मुझे ,
जिसकी कोई खबर नहीं मिलती ।
बंदिशें खुद ही लगाई हैं मैंने ,
कैसे तोडूं वजह नहीं मिलती ।
वो मेरे दिल में अब भी रौशन है ,
जिसकी सूरत भी अब नहीं दिखती ।
आग कुछ ऐसी लगाई थी मैंने ,
किसी सूरत भी जो नहीं बुझती ।
अपनी लाचारी क्या कहूं तुमसे ,
दिल तो चाहे, जुबां नहीं हिलती ।
दिल की बातें किसे कहे प्रदीप ,
अब तबीयत कहीं नहीं मिलती .

1 comment:

Anonymous said...

bariya Sir, bahut bariya