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Friday, October 24, 2008

ग़ज़ल

मैं जो बैठा तन्हाँ तो आँख भर आई ,
हर तरफ अपनी ही खता नज़र आई ।
बाद मुद्दत भी तेरी गलियों में ,
वो ही रंगत मुझे नज़र आई ।
कोई झाँका जो आके छजली पे,
तेरी सूरत मुझे नज़र आई ।
देर तक बैंच पर मैं बैठा रहा,
जाने क्या सोच आँखें भर आई ।
याद करके वो गुजरी सब बातें ,
अपनी गलती ही बस नज़र आई।
कोई मिस काल जब भी आती है ,
मुझको लगता है तेरी काल आई ।
आइना अब भी है वही मगर ,
कोई सूरत नहीं नज़र आई ।
जब भी नाउम्मीद होता है प्रदीप ,
उसको सूरत-ए-सिया नज़र आई .

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