मैं जो बैठा तन्हाँ तो आँख भर आई ,
हर तरफ अपनी ही खता नज़र आई ।
बाद  मुद्दत  भी  तेरी  गलियों में ,
वो  ही  रंगत  मुझे  नज़र आई ।
कोई  झाँका  जो आके छजली पे,
तेरी  सूरत  मुझे  नज़र  आई ।
देर  तक  बैंच पर मैं बैठा रहा,
जाने क्या सोच आँखें भर आई ।
याद करके वो गुजरी सब बातें ,
अपनी गलती ही बस नज़र आई।
कोई मिस काल जब भी आती है ,
मुझको लगता है तेरी काल आई ।
आइना  अब भी  है  वही मगर ,
कोई  सूरत  नहीं  नज़र  आई ।
जब भी नाउम्मीद होता है प्रदीप  ,
उसको  सूरत-ए-सिया नज़र आई .
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