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Saturday, October 25, 2008

ग़ज़ल

रोज़ तिल से पहाड़ होती गलती,
शुक्र ये कि अब नहीं होती गलती।
कोई अपना जो मुझसे रूठा है ,
अब ये दुनिया ही कुछ नहीं लगती ।
माफ़ी की अब भी है मुझे उम्मीद ,
बेशक वो थी बहुत बड़ी गलती।
मैं अगर देखता भी रहूँ मुड़कर ,
ज़िन्दगी किसी तरह नहीं थमती ।
आज भी उसकी जुस्तजू है मुझे ,
जिसकी कोई खबर नहीं मिलती ।
बंदिशें खुद ही लगाई हैं मैंने ,
कैसे तोडूं वजह नहीं मिलती ।
वो मेरे दिल में अब भी रौशन है ,
जिसकी सूरत भी अब नहीं दिखती ।
आग कुछ ऐसी लगाई थी मैंने ,
किसी सूरत भी जो नहीं बुझती ।
अपनी लाचारी क्या कहूं तुमसे ,
दिल तो चाहे, जुबां नहीं हिलती ।
दिल की बातें किसे कहे प्रदीप ,
अब तबीयत कहीं नहीं मिलती .

Friday, October 24, 2008

ग़ज़ल

मैं जो बैठा तन्हाँ तो आँख भर आई ,
हर तरफ अपनी ही खता नज़र आई ।
बाद मुद्दत भी तेरी गलियों में ,
वो ही रंगत मुझे नज़र आई ।
कोई झाँका जो आके छजली पे,
तेरी सूरत मुझे नज़र आई ।
देर तक बैंच पर मैं बैठा रहा,
जाने क्या सोच आँखें भर आई ।
याद करके वो गुजरी सब बातें ,
अपनी गलती ही बस नज़र आई।
कोई मिस काल जब भी आती है ,
मुझको लगता है तेरी काल आई ।
आइना अब भी है वही मगर ,
कोई सूरत नहीं नज़र आई ।
जब भी नाउम्मीद होता है प्रदीप ,
उसको सूरत-ए-सिया नज़र आई .