ठोकरें खाता है यां  इंसान रोज़,
यूं दुखी रहता है यां इंसान रोज़ ।
आ गया तो खूब कर लो आव भगत ,
अब कहाँ आता है घर मेहमान रोज़ ।
मुद्दत ही सीधी नहीं की बातचीत ,
पर खयालों में बहस होती है रोज़ ।
देखी हैं  मैंने  हसीनाएँ  बहुत पर ,
आपमें कुछ और हाय देखा है शोज़ ।
उड़ते फिरना  आज़ाद पंछी की तरह ,
छोडो  भी  अब कहाँ है ऐसी मौज ।
हम भी सजधज कर चले बहना के घर ,
बाद मुद्दत के है आये भईया दौज ।
मान की ममता अब ही है खाब इक ,
जाने किस नफरत में जीते हैं अब रोज़ ।
मौत भी तो हो गी है खाब अब ,
ज़िन्दगी का धो रहा हूँ कब से बोझ ।
अपने दिल की कुछ नहीं कहता है वो ,
इक शिकन माथे पे बढ़ जाती है रोज़ । 
जाने ये कैसे गृहस्थी है प्रदीप ,
नित नई  सी नोंक झौक रोज़ रोज़ .
![[lock2.bmp]](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhXgUWgEg5i7Hjk49lYgKlp2Wns2wHjtEylFNmlRZ2PA9hhdWx9zV9uap5jRaXgwEUeZr9KSsdj_Nf9NnD7yEekcZuD5uy4_-BwhPrpiqTld3U1wsy4Q-c_DrDYwIk6yN7SGfBvz97qprY/s1600/lock2.bmp) 
 
 
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