इस तरह उलझा हुआ  हूँ  दुनियादारी में ,
अपनी सुध-बुध खो चूका हूँ दुनियादारी में । 
जाने उसकी किस अदा से  मैं  हुआ घायल ,
कितने सारे पेंच-औ-ख़म हैं तेग-ऐ-दुधारी में ।
भ्रूण हत्या का हुआ है देखो ये अंजाम ,
बस आदमी ही रह गए मर्दुमशुमारी में ।
आँख उठाते ही सभी शर्म-औ-हया जाती रही ,
अब छुपाने  को  रहा  क्या  पर्दा दारी  में ।
कौन कहता है न खाए हमने ज़ख्म ,
धुल गए हैं यार की सब गमगुसारी  में ।
खू के रिश्तों से तो दिल के रिश्ते हैं भले ,
ठोकरें ही खाई  हमने   रिश्तेदारी  में ।
गर्त से मुझको उबारा मेहरबानी आपकी ,
वरना में भी जलता रहता बेकरारी में ।
साफगोई इस जहां से उठ गई ऐ प्रदीप ,
झूठ , मक्कारी बची बस दुनियादारी में .
![[lock2.bmp]](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhXgUWgEg5i7Hjk49lYgKlp2Wns2wHjtEylFNmlRZ2PA9hhdWx9zV9uap5jRaXgwEUeZr9KSsdj_Nf9NnD7yEekcZuD5uy4_-BwhPrpiqTld3U1wsy4Q-c_DrDYwIk6yN7SGfBvz97qprY/s1600/lock2.bmp) 
 
 
1 comment:
बहुत बेहतरीन गजल है।
खू के रिश्तों से तो दिल के रिश्ते हैं भले ,
ठोकरें ही खाई हमने रिश्तेदारी में ।
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