एक छत तले कितने सारे अजनबी रहते रहे ,
और हम नादान कितने उसको घर कहते रहे .
इक नदी बहती हुई लगने लगी ये ज़िन्दगी ,
कितने सारे रिश्ते इसमें बिन रुके बहते रहे .
चार दीवारें  खड़ी  कर एक छत भी डाल दी ,
बेखुदी में इस मकां को हम भी घर कहते रहे .
तंग आये इस बेकसी औ  बेबसी से हम ,
लोग जाने क्यों इसे ज़िन्दगी कहते रहे .
अब ये जाना उसके मन में मैल था कितना भरा ,
लोग हंसकर मिलने को ही बंदगी कहते रहे .
अपना ग़म  लेकर नहीं जाते कहीं ऐ प्रदीप
उम्र भर ये सोचकर चुपचाप ग़म सहते रहे .
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