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Friday, March 07, 2008

वेश्या !

वेश्या !
ऐसी औरत रेल की पटरी की तरह होती है ,
जो ताउम्र भीड़ में रहकर भी तन्हा होती है ,
गर्मी और सर्दी ,
उसके जीवन में दो ही मौसम होते हैं ।
गर्मी आती है तो वो अपनी टाँगे फैला लेती है ,
और सर्दी आती है तोअपनी टाँगे सिकोड़ लेती है ।
लोग उसकी ज़िंदगी में रेल की तरह आते हैं ,
जो उसको बेसाख्ता रोंदते हुए बढ़ जाते हैं ।
जब उनका जी करे वो इसको झिन्झोड़ते हैं ,
और जब इसका मन चाहे तो ये ख़ुद को झिंझोड़ लेती है ।
ऐसी औरत रेल की पटरी की तरह होती है !
ऐसी औरत रेल की पटरी की तरह होती है !

दोस्तों अपनी नई कविता पर आपकी बेबाक टिपण्णी का मुझे इंतज़ार रहेगा !

प्रदीप कुमार baliyan

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