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Monday, March 03, 2008

एक अधूरी बहस

उसने मुझसे कहा !
क्यों है सोया हुआ ? कहाँ खोया हुआ ?
क्यों तू मायूस है ? ये तुझे क्या हुआ ?
खोल आँखें ज़रा , यूं न नज़रें चुरा ,
देख ये ज़िन्दगी कितनी रंगीन है ....
मैंने उस से कहा !
न मैं खोया हुआ , ना हूँ सोया हुआ ,
ज़िन्दगी के ये रंग , कितने रंग हीन हैं ,
दुनिया ग़मगीन है इसलिए हूँ उदास ,
और में हूँ मायूस ये मुझे है हुआ .
उसने मुझसे कहा !
ज़िन्दगी है पतंग , जाने कितने हैं रंग ,
जैसे तितली कोई , रंग बिरंगी सी है ।
ज़िन्दगी है ये क्या , कोई इन्द्र धनुष ,
हर तरफ इसमें रंगों की खुशबू सी है .
मैंने उस से कहा !कागजी सारे रंग ,
ना ख़ुशी ना उमंग ,ज़िन्दगी कागजी जैसे कागज़ की नाव ।
आये गम की नदी तो डूब जाती है ये,
मीलों लंबा सफर , ना कोई ठहराव ।
उसने मुझसे कहा !ज़िन्दगी है सफर ,
हंस के आगे तू बढ़ ,आगे मंजिल तेरी हौसले से तू चढ़ ।
थक के यूं ना तू बैठ ,इन दुखों के उधर है सुखों का पहाड़ .
ज़िन्दगी है सजा ...नहीं ये है मज़ा ।
ज़िन्दगी राग है ...ये कोई आग है ।
ज़िन्दगी शोज़ है ...ये तो बस शोग है ।
ज़िन्दगी साज़ है ....ये तो खटराग है ।
ज़िन्दगी है कली....ये है अंधी गली ।
इक सहेली है ये ...जी पहेली है ये ।
बढ़ के थाम इसका हाथ ...ऐसी अनजान का कौन ठामेगा हाथ ।
ज़िन्दगी मां की गोद ....ये है बूढे का बोझ ।
ज़िन्दगी है वफ़ा ....जी नहीं बेवफा ।
उम्र भर दे ये साथ ...छोडे पल में ये साथ ।
उसने मुझसे कहा !सुन रे
नादान तू !
ज़िन्दगी आइना ,तेरा ही अक्श तो इसमें ....आता नज़र ।ये तुझे ना खबर ।ज़िन्दगी जीनी गर इस से समझौता कर . इस से समझौता कर . इस से समझौता कर !

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