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Tuesday, March 04, 2008

हूँ ! तुम मुझपे कविता लिखोगे - अन्तिम

हाँ ! हाँ ! हाँ मैं तुम पर कविता लिखूंगा ।
माना तुमने है ज़हर पिया और विष पीकर भी ज़िंदा हो ।
बेशक धोती हो पाप बहुत लेकिन फ़िर भी तुम गंगा हो ।
ये दर्द जिन्होंने बख्शे हैं ,तुम उनकी चिंता करती हो ।
जो ग़लत किया है औरों ने , तुम उसपे क्यों शर्मिंदा हो ।
उस कीचड मैं हो धंसी हुई दुनिया को छोटी मान रही ।
लेकिन कुछ अब भी है बाकी तुम इसीलिए तो जिंदा हो ।
ये बेशक रात अँधेरी हो , ना हाथ को हाथ सूझता हो ।
याद करो उस ताकत को , तुम जिसका एक पुलिंदा हो ।
तुम आंधी हो , एक आफत हो , तुम चंडी हो , तुम दुर्गा हो ।
तेरा दुःख नारी का दुःख है , है इसीलिए इतना भारी ।
कहने को दो घर की मालिक ,देहरी पे ही रहे बेचारी ।
आते जाते ठोकर मारे , दुखिया है किस्मत की मारी ।
लेकिन तुम जीवन सरिता हो , मैं तेरे गम में रहता हूँ ।
सारी पीड़ा , सारे गम , मेरे हमदम मुझको दे दो ।
खुशियों से भर लो दामन , अपने सब गम मुझको दे दो ।
तेरी पीड़ा , तेरे गम , तेरी सिसकी ,तेरी आहें ।
उन सबकी खातिर इस दिल में हैं शब्द बहुत ।
लेकिन उन शब्दों को जब में कागज़ पर लिखने लगता हूँ
तेरे आँसू के दरिया में ,हर्फ़ सभी बह जाते हैं
लेकिन वो सारे आंसू , मुझको बस अपने लगते हैं
तुम ही मेरी कविता हो , मुझसे ये कहने लगते हैं .

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